________________ २१-उववाइयं-उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितम्-ईप्सितं वस्तु-" अर्थात् . जिस वस्तु की प्रार्थना की जाए वह उपयाचित कही जाती है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु ईप्सित-इष्ट हो वह उपयाचित कहलाती है। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में उपयाचित शब्द के १-प्रार्थित, अभ्यर्थित, २-मनौती-अर्थात् किसी काम के पूरा होने पर किसी देवता की विशेष आराधना करने का मानसिक संकल्प-ऐसे दो अर्थ लिखे हैं। २२-उवाइणित्तए-उपयाचितुं प्रार्थयितुम्-'" अर्थात् उपयाचितुं-यह क्रियापद प्रार्थना करने के लिए, इस अर्थ का बोध कराता है। -अज्झथिए 5- यहां पर दिए 5 के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। कल्लं जाव जलन्ते-यहां पठित जाव-यावत् पद से पाउप्पभायाए रयणीयफुल्लुप्पलकमल-कोमलुम्मीलियम्मि अहापण्डुरे पभाए रत्तासोग-प्पगास-किंसुयसुअमुह-गुंजद्धरागबन्धुजीवग-पारावयचलण-नयण-परहुअ-सुरत्तलोअणजासुमण-कुसुम-जलिय-जलण-तवणिज-कलस-हिंगुलय-निगर-रूवाइरेगरेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए तस्स दिणगरकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुंकुमेणं खचिय व्व जीवलोए लोयणविसयाणुयासविगसंतविसददंसियम्मि लोए कमलागरसण्डबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्स-रस्सिम्मि दिणयरे तेअसा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है- . जिस में प्रभात का प्रकाश हो रहा है, ऐसी रजनी-रात के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् रात्रि के व्यतीत और प्रभात के प्रकाशित हो जाने पर, विकसित पद्म और कमल-हरिणविशेष का कोमल उन्मीलन होने पर अर्थात् कमल के दल खुल जाने पर और हरिण की आंखें खुल जाने पर, अथ-अनन्तर अर्थात् रजनी के व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रभात के पाण्डुर-शुक्ल होने पर, रक्त अशोक-पुष्पविशेष की कान्ति के समान, किंशुक-केसू, शुकमुख-तोते की चोंच, गुंजार्द्ध-भाग-गुंजा का रक्त अर्द्ध भाग, बन्धुजीवक (जन्तुविशेष), पारापत-कबूतर के चरण और नेत्र, परभृत-कोयल के सुरक्त-अत्यन्त लाल लोचन, जपा नामक वनस्पति के पुष्प फूल, प्रज्वलित अग्नि, सुवर्ण के कलश, हिंगुल-सिंगरफ की राशि-ढेर, इन सब के रूप से भी अधिक शोभायमान है स्व-स्वकीय श्री अर्थात् वर्ण की कान्ति जिस की ऐसे दिवाकरसूर्य के यथाक्रम उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों की परम्परा-प्रवाह के अवतार अर्थात् गिरने से अन्धकार के प्रनष्ट होने पर बालातप-उगते हुए सूर्य की जो आतप-धूप तद्रूप 592] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध