________________ उस का पूर्ववर्ती कोई न कोई कारण भी अवश्य विद्यमान होना चाहिए, परन्तु वह क्या है, और कैसा है, इसका अनुगम तो किसी विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा रखता है। कर्मवाद के सिद्धान्त का अनुसरण करने वाले आस्तिक दर्शनों में इस विषय का अच्छी तरह से स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि आत्मा में सुख और दुःख की जो अनुभूति होती है वह उस के स्वोपार्जित प्राक्तनीय कर्मों का ही फल है, अर्थात् कर्मबन्ध की हेतुभूत सामग्री अध्यवसायविशेष से यह आत्मा जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बन्ध करता है, उसी के अनुरूप ही इसे विपाकोदय पर सुख अथवा दुःख की अनुभूति होती है। यह कर्मवाद का सामान्य अथच व्यापक सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार किसी सुखी जीव को देख कर उस के प्राग्भवीय शुभ कर्म का और दुःखी जीव को देखने से उस के जन्मांतरीय अशुभ कर्म का अनुमान किया जाता है। शास्त्र चक्षु छद्मस्थात्मा की सीमित बुद्धि की पहुँच यहीं तक . हो सकती है, इस से आगे वह नहीं जा सकती। तात्पर्य यह है कि अमुक दुःखी व्यक्ति ने कौन सा अशुभ कर्म किया और किस भव में किया, किस का फल इसे इस जन्म में मिल रहा है, इस प्रकार का विशेष ज्ञान शास्त्रचक्षु छद्मस्थ आत्मा की ज्ञानपरिधि से बाहर का होता है। इस विशेषज्ञान के लिए किसी परममेधावी दूसरे शब्दों में -किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी की शरण में जाने की आवश्यकता होती है। वही अपने आलोकपूर्ण ज्ञानादर्श में इसे यथावत् प्रतिबिंबित कर सकता है। अथवा यूं कहिए कि उसी दिव्यात्मा में इन पदार्थों का विशिष्ट आभास हो सकता है, जिस का ज्ञान प्रतिबन्धक आवरणों से सर्वथा दूर हो चुका है। ऐसे दिव्यालोकी महान् आत्मा प्रकृत में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं। भगवान् गौतम द्वारा दृष्ट दु:खी व्यक्ति के दुःख का मूलस्रोत क्या है, इसका विशेषरूप से बोध प्राप्त करने के लिए उसके पूर्वभवों के कृत्यों को देखना होगा, परन्तु उन का द्रष्टा तो कोई सर्वज्ञ आत्मा ही हो सकता है। बस इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने सर्वज्ञ आत्मा वीर प्रभु के सन्मुख उपस्थित होकर सामान्य ज्ञान रखने वाले भव्यजीवों के सुबोधार्थ पूर्व दृष्ट दुःखी व्यक्ति के पूर्व भव की पृच्छा की है। प्रस्तुत सूत्र में विजयपुर नगर के नरेश कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि के आयुर्वेद सम्बन्धी विशदज्ञान के वर्णन के साथ-साथ उसकी चिकित्साप्रणाली का उल्लेख करने के बाद उसकी हिंसापरायण मनोवृत्ति का परिचय करा दिया गया है। जिस मनुष्य में हिंसक मनोवृत्ति की इतनी अधिक और व्यापक मात्रा हो, उस के अनुसार वह कितने क्लिष्ट कर्मों का बन्ध. करता है, यह समझना कुछ कठिन नहीं है। 574] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध