________________ यावत् पाटलिषंडं नगरं दाक्षिणात्येन द्वारेणानुप्रविशति, तमेव पुरुषं पश्यति, कच्छूमन्तं तथैव यावत् संयमेन विहरति / ततः स गौतमस्तृतीयमपि षष्ठ तथैव यावत् पाश्चात्येन द्वारेणानुप्रविशन् तथैव पुरुषं कच्छू पश्यति / चतुर्थमपि षष्ठ उत्तरेण / अयमाध्यात्मिकः 5 समुत्पन्न:-अहो ! अयं पुरुषः पुरा पुराणानां यावदेवमवदत्-एवं खल्वहं भेदुन्त ! षष्ठस्य पारणके यावत् रीयमानो यत्रैव पाटलिपंडं तत्रैवोपागच्छामि 2 पाटलिपुत्रे पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविष्टः, तत्रैकं पुरुषं पश्यामि कच्छूमंतं यावत् कल्पयन्तम्। ततोऽहं द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके दाक्षिणात्येन द्वारेण तथैव। तृतीयमपि षष्ठक्षमणपारणके पाश्चात्येन तथैव। ततोऽहं चतुर्थमपि षष्ठक्षमणपारणे उत्तरद्वारेणानुप्रविशामि, तमेव पुरुषं पश्यामि कच्छुमन्तं यावद् वृत्तिं कल्पयन् विहरति / चिन्ता मम। पूर्वभवपृच्छा / व्याकरोति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। भगवं-भगवान्। गोतमे-गौतम। दोच्चं पि-दूसरी बार। छद्रुक्खमणपारणगंसि-षष्ठक्षमण के पारणे में भी अर्थात् लगातार दो दिन के उपवास के अनन्तर पारणा करने के निमित्त। पढमाए-प्रथम। पोरिसीए-पौरुषी-प्रहर में। जाव-यावत्। पाडलिसंडं-पाटलिषंड। णगरं-नगर में। दाहिणिल्लेणं-दक्षिण दिशा के। दुवारेणं-द्वार से। अणुप्पविसति-प्रवेश करते हैं। तं चेव-और उनी। कच्छुल्लं-कंडूयुक्त।पुरिसं-पुरुष को।पासति-देखते हैं। तहेव-तथैव-पूर्व की भान्ति। जाव-यावत्। संजमेणं-संयम और तप से आत्मा को भावित-वासित करते हुए। विहरति-विहरण करते हैं, विचरते हैं। तते णं-तदनन्तर / से-वह / गोतमे-गौतम स्वामी। तच्चं पि-तीसरी बार। छट्ट०-षष्ठक्षमण के पारणे में भी। तहेव-तथैव-पूर्ववत् / जाव-यावत्। पच्चथिमिल्लेणं-पश्चिम दिशा के। दुवारेणं-द्वार से। अणुप्पविसमाणे-प्रवेश करते हुए। तं चेव-उसी। कच्छु०-कंडू के रोग से युक्त। पुरिसं-पुरुष को। . पासति-देखते हैं। चउत्थं पि-चौथी बार भी। छट्ठ०-षष्ठक्षमण के पारणे में। उत्तरेणं०-उत्तर दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए वहां उसी पुरुष को देखते हैं, तब उन को। इमे-यह / अज्झथिए ५-आध्यात्मिकसंकल्प 5 / समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। अहो-आश्चर्य है। णं-वाक्यालंकारार्थक है। इमे पुरिसे-यह पुरुषपुरा-पूर्वकृत। पोराणाणं-पुरातन पापकर्मों के फल का उपभोग कर रह है। जाव-यावत् भगवान् के पास आकर। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगे। भंते !-हे भगवन् ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अहं-मैं / छट्ठस्स-षष्ठक्षमण षष्ठतप के। पारणयंसि-पारणे के निमित्त (भिक्षार्थ)। जाव-यावत्।रीयंतेभ्रमण करता हुआ। जेणेव-जहां। पाडलिसंडं-पाटलिपंड। णगरं-नगर था। तेणेव-वहां। उवागच्छामिगया। पाडलिपुत्ते-पाटलिपुत्र नगर के। पुरथिमिल्लेणं-पूर्व दिशा के।दारेणं-द्वार से, मैंने।अणुष्पविद्वेप्रवेश किया तो। तत्थ णं-वहां पर / एग-एक। पुरिसं-पुरुष को। पासामि-मैंने देखा, जोकि / कच्छुल्लंकंडू के रोग से युक्त। जाव-यावत्। कप्पेमाणं-भिक्षावृत्ति से आजीविका चला रहा था। तए णं 1. इस पाठ से यह प्रमाणित होता है कि पाटलिपुत्र-यह पाटलिषंड का अपर नाम है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [565