________________ इस कथन से भगवान् गौतम में रसगृद्धि के अभाव को सूचित करने के साथ-साथ . उनके इन्द्रियदमन और मनोनिग्रह को भी व्यक्त किया गया है, तथा आहार का ग्रहण भी वे धर्म के साधनभूत शरीर को स्थिर रखने के निमित्त ही किया करते थे, न कि रसनेन्द्रिय की तृप्ति करने के लिए-इस बात का भी स्पष्टीकरण उक्त कथन से भलीभान्ति हो जाता है। इस के अतिरिक्त यहां पर इस प्रकार आहार ग्रहण करने से अजीर्णता की आशंका करना तो नितान्त भूल करना है। भगवान् गौतम स्वामी जैसे तपस्विराज के विषय में तो इस प्रकार की संभावना भी नहीं की जा सकती। अजीर्ण तो उन लोगों को हो सकता है जो इस शरीर को मात्र भोजन के लिए समझते हैं, और जो शरीर के लिए भोजन करते हैं, उन में अजीर्णता को कोई स्थान नहीं है, और वस्तुतः यहां पर शास्त्रकार को अचर्वण से रसास्वाद का त्याग ही अभिप्रेत है, न कि चर्वण का निषेध। प्रस्तुत सूत्र में पाटलिषंड नगर के पूर्वद्वार से प्रविष्ट हुए गौतम स्वामी ने एक रोगसमूहग्रस्त नितान्त दीन दशा से युक्त पुरुष को देखा-इत्यादि विषय का वर्णन किया गया है। अब अग्रिमसूत्र में उक्त नगर के अन्य द्वारों से प्रवेश करने पर गौतम स्वामी ने जो कुछ देखा, उस का वर्णन किया जाता है____ मूल-तते णं से भगवं गोतमे दोच्चं पि छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए जाव पाडलिसंडं णगरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति, तं चेव पुरिसं पासति कच्छुल्लं तहेव जाव संजमे विहरति। तते णं से गोतमे तच्चं पि छट्ठ तहेव जावपच्चत्थिमिल्लेणंदुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छु. पासति। चउत्थं पि छ? उत्तरेणं, इमे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-अहो ! णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणंजाव एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! छट्ठस्स पारणयंसि जावरीयंते जेणेव पाडलिसंडे तेणेव उवागच्छामि 2 पाडलिपुत्ते पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पवितु। तत्थ णं एगं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं। तए णं अहं दोच्चं पि छ?क्खमणपारणए दाहिणिल्लेणं दारेणं तहेव। तच्चं पि छट्ठक्खमणपारणए पच्चत्थिमेणं तहेव।तए णं अहं चउत्थं पिछलुक्खमणपारणे उत्तरदारेण अणुप्पविसामि, तं चेव पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरति। चिंता ममं। पुव्वभवपुच्छा। वागरेति। छाया-ततः स भगवान् गौतमो द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां 564 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध