________________ तदन्तर। से विजय-वह विजय। चोरसेणावती-चोरसेनापति। खंदसिरीए भारियाए- स्कन्ध श्री भार्या के। अंतिते- पास से। एयमढें- इस बात को। सोच्चा- सुनकर तथा। णिसम्म-हृदय में धारण कर। खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री नामक भार्या को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे सुभगे ! अहासुहं त्ति-जैसा तुम को सुख हो वैसा करो, इस प्रकार से / एयमटुं-उस बात को। पडिसुणेति-स्वीकार करता है, तात्पर्य यह है कि विजय ने स्कन्दश्री के दोहद को पूर्ण कर देने की स्वीकृति दी। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। खंदसिरी-स्कन्दश्री। भारिया-भार्या। विजएणं-विजय नामक। चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा। अब्भणुण्णाया समाणी-अभ्यनुज्ञात होने पर अर्थात् उसे आज्ञा मिल जाने पर / हट्ट०-बहुत प्रसन्न हुई और / बहूहिं-अनेक। मित्त-मित्रों की। जाव-यावत्। अन्नाहि य-और दूसरी / बहूहिं-बहुत सी। चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाओं के / सद्धिं-साथ। संपरिवुडासंपरिवृत हुई-घिरी हुई। पहाया-स्नान कर के। जाव-यावत्। विभूसिता-सम्पूर्ण अलंकारों-आभूषणों से विभूषित हो कर। विपुलं-विपुल-पर्याप्त / असणं ४-अशनादि खाद्य पदार्थों / सुरं च ५-और सुरा आदि पंचविध मद्यों का। आसादेमाणी ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करती हुई। विहरति-विहरण कर रही है। जिमियभुत्तुत्तरागया-भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर। पुरिसणेवत्थिया-पुरुष के वेष से युक्त। सन्नद्धबद्ध-दृढबन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवचलोहमय बख्तर विशेष को शरीर पर धारण किए हुए। जाव-यावत्। आहिंडेमाणी-भ्रमण करती हुई। दोहलं-दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है। तते णं-तदनन्तर। सा खंदसिरी भारिया-वह स्कन्दश्री भार्या। संपुण्णदोहला-संपूर्णदोहदा अर्थात् जिस का दोहद पूर्ण हो गया है। संमाणियदोहला-सम्मानितदोहदा अर्थात् इच्छित पदार्थ ला कर देने के कारण जिस के दोहद का सन्मान किया गया है। विणीयदोहलाविनीतदोहदा अर्थात् अभिलाषा के निवृत्ति होने से जिस के दोहद की निवृत्ति हो गई है। वोच्छिन्नदोहलाव्युच्छिन्नदोहदा अर्थात् दोहद-इच्छित वस्तु की आसक्ति न रहने से उस का दोहद व्युच्छिन्न (आसक्तिरहित) हो गया है। सम्पन्नदोहला-सम्पन्नदोहदा अर्थात् अभिलषित अर्थ-धनादि और भोग-इन्द्रियों के विषय से सम्पादित आनन्द की प्राप्ति होने से जिस का दोहद सम्पन्न हो गया है। तं-उस। गब्भं-गर्भ को। सुहंसुहेणं-सुख-पूर्वक। परिवहति-धारण करने लगी। तते णं-तदनन्तर / सा-उस।खंदसिरी-स्कन्दश्री। चोरसेणावतिणी-चोरसेनापति की स्त्री ने। नवण्हं-मासाणं-नव मास के। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण होने पर / दारगं-बालक को। पयाता-जन्म दिया। मूलार्थ-तदनन्तर विजय नामक चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देख कर इस प्रकार कहा सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में से बहुपडिपुण्णाणं-से लेकर-अविणिज्जमाणंसि-यहां तक के पदों का अर्थ इसी अध्याय में पीछे और सुक्खा-इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [373