________________ तथा वे कुल बहुत से लोगों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकेंगे। .. शकट कुमार का जीव महाविदेह क्षेत्र में इन पूर्वोक्त उत्तम कुलों में उत्पन्न होकर दृढ़प्रतिज्ञ की भान्ति 72 कलाएं सीखेगा और युवा होने पर तथारूप स्थविरों के पास दीक्षित हो संयमाराधन कर के सिद्धि को प्राप्त करेगा, कर्मजन्य संताप से रहित हो जाएगा और सर्वप्रकार के जन्म मरण जन्य दुःखों का अन्त कर डालेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनपरिचय प्रथम अध्ययन में दिया जा चुका है। . प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में सूत्रकार ने जीवन-कल्याण के लिए दो बातों की विशेष प्रेरणा कर रखी है। प्रथम तो मांसाहार के त्याग की और दूसरे ब्रह्मचर्य के पालन की। मांसाहर गर्हित है, दुःखों का उत्पादक है तथा जन्म मरण की परम्परा का बढ़ाने वाला है। यह सभी धर्मशास्त्रों ने पुकार-पुकार कर कहा है। साथ में उस के त्याग को बड़ा सुखद, प्रशस्त एवं सुगतिप्रद माना है। मांसाहार से जन्य हानि और उस के त्याग से होने वाला लाभ शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से वर्णित हुआ है। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ शास्त्रीय उद्धरण नीचे दिए जाते हैं जैनागम श्री स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान में नरक-आयु-बन्ध के निनोक्त चार कारण लिखे हैं (1) महारम्भ-बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार के तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना महारम्भ कहलाता है। (2) महापरिग्रह-वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा-आसक्ति महापरिग्रह कहा जाता है। (3) पञ्चेन्द्रियवध-५ इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा करना पंचेन्द्रियवध है। (4) कुणिमाहार-कुणिम अर्थात् मांस का आहार करना कुणिमाहार कहलाता ___इन कारणों में मांसाहार को स्पष्टरूप से नरक का कारण माना है, और उसी सूत्र के आयुबन्धकारणप्रकरण में प्राणियों पर की जाती दया और अनुकम्पा के परिणामों को मनुष्यायु के बन्ध का कारण माना है। जैनशास्त्रों में ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते हैं, जिन में मांसाहार को दुर्गतिप्रद बता कर उसके निषेध का विधान किया गया है और उसके त्याग को देवदुर्लभ मानवभव का तथा परम्परा से निर्वाणपद का कारण बता कर बड़ा प्रशंसनीय संसूचित किया है। जैनधर्म की नींव ही अहिंसा पर अवस्थित है। किसी प्राणी की हत्या तो दूर की बात है वह तो किसी प्राणी के अहित का चिन्तन करना भी महापाप बतलाता है। अस्तु, जैनशास्त्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [479