________________ ही दिन के तीसरे भाग में सूली से भेदन किये जाने पर कालावसर में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा, एवं प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति संसारभ्रमण करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग रूप से जन्म लेगा। वहां पर वागुरिकों-जाल में फंसाने का काम करने वाले व्याधों के द्वारा मारा जाने पर इसी हस्तिनापुर नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूपेण जन्म धारण करेगा। ____ वहां सम्यक्त्व की प्राप्ति करेगा और काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, तथा वहां अनगारवृत्ति को धारण कर संयमाराधन के द्वारा कर्मों का क्षय करके सिद्धिपद को प्राप्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। ॥पंचम अध्ययन समाप्त॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में बृहस्पतिदत्त के आगामी भवों का वर्णन किया गया है। तथा मानवभव में बोधिलाभ के अनन्तर उसने जिस उत्क्रान्ति मार्ग का अनुसरण किया और उस के फलस्वरूप अन्त में उसे जिस शाश्वत सुख की उपलब्धि हुई उस का भी सूत्रवर्णनशैली के अनुसार संक्षेप से उल्लेख कर दिया गया है। __गौतम स्वामी को सम्बोधित करते हुए वीर प्रभु ने फरमाया कि गौतम ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित के जीव की आगामी भवयात्रा का वृत्तान्त इस प्रकार है- ' उस की पूर्ण आयु 64 वर्ष की है। आज वह दिन के तीसरे भाग में सूली पर चढ़ाया जाएगा, उस में मृत्यु को प्राप्त हो कर वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, वहां की भवस्थिति को पूरी करने के अनन्तर उस का अन्य संसारभ्रमण मृगापुत्र की भान्ति ही जान लेना चाहिए अर्थात् नानाविध उच्चावच योनियों में गमनागमन करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग की योनि में जन्म लेगा। वहां पर भी वागुरिकों-शिकारियों से वध को प्राप्त होकर वह हस्तिनापुर नगर में ही वहां के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्म धारण करेगा। यहां से उस का उत्क्रान्ति मार्ग आरम्भ होगा, अर्थात् 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि बृहस्पतिदत्त को दिन के तीसरे भाग में सूली पर चढ़ा दिया जाएगा। इस पर यह आशंका होती है कि जब कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर उस के साथ बड़ा क्रूर एवं निर्दय व्यवहार किया गया था। अवकोटकबन्धन से बान्ध कर, उसी के शरीर में से निकाल कर उसे मांसखण्ड खिलाए जा रहे थे। तथा चाबुकों के भीषणातिभीषण प्रहारों से उसे मारणान्तिक कष्ट पहुंचाया गया था तब वहां उस के प्राण कैसे बचे होंगे? अर्थात मानवी जीवन में इतना बल कहां है कि वह इस प्रकार के भीषण नरक-तुल्य संकट झेल लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर तृतीय अध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन चोरसेनापति का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में बृहस्पतिदत्त का। 506 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध