________________ कितनों के मस्तकों, अवटुओं-घंडियों, जानुओं और गुल्फों-गिट्टों में लोहकीलों तथा वंशशलाकाओं को ठुकवाता है, तथा वृश्चिककण्टकों-बिच्छु के कांटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है। कितनों की हस्तांगुलियों और पादांगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइयां और दम्भनों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है। कितनों को शस्त्रों यावत् नहेरनों से अंग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहित कुशाओं, कुशाओं-बिना जड की कुशाओं तथा आर्द्र-चर्मों के द्वारा बंधवा देता है। तदनन्तर धूप में गिरा कर उन के सूखने पर चड़चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पाटन कराता है। इस प्रकार वह दुर्योधन चारकपाल इन्हीं निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म बनाए हुए, इन्हीं में प्रधानता लिए हुए, इन्हीं को अपनी विद्या-विज्ञान बनाए हुए तथा इन्हीं दूषित प्रवृत्तियों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके 31 सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को उपलब्ध करना होता है। मोक्ष का एक मात्र साधन है-धर्म। धर्म के दो भेद होते हैं। पहले का नाम सागार धर्म है और दूसरे का नाम है-अनगार धर्म / सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं और अनगार धर्म साधुधर्म को। प्रस्तुत में हमें गृहस्थ-धर्म के पालन के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है। .. ___अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिए पाया जाता है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन करना अशक्य होता है, गृहस्थ संसार में निवास करता है, अत: उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तरदायित्व रहता है। उसे अपने विरोधी-प्रतिद्वन्द्वी लोगों से संघर्ष करना पड़ता है, जीवन-यात्रा के लिए सावध मार्ग अपनाना होता है। परिग्रह का जाल बुनना होता है। न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है। अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरिणति रूप अखण्ड अहिंसा आदि व्रतों का पालन नहीं कर सकता। . तथापि गृहस्थ इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखने में प्रयत्नशील रहता है। स्त्री के मोह में वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता। महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है। भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता। लोकरूढ़ि का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [531