________________ कि मानव के आकार में दानव था। मांसाहारी तथा मांसाहार जैसी हिंसा एवं अधर्म पूर्ण पापमय प्रवृत्तियों का उपदेष्टा बना हुआ था, तथा जिसे इन्हीं नृशंस प्रवृत्तियों के कारण नारकीय भीषण यातनाएं सहन करने के साथ-साथ दुर्गतियों में भटकना पड़ा था। उस अध्ययन का आदिम सूत्र इस प्रकार है मूल-सत्तमस्स उक्खेवो। छाया-सप्तमस्योत्क्षेपः। पदार्थ-सत्तमस्स-सप्तम अध्ययन का। उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेना चाहिए। मूलार्थ-सप्तम अध्ययन के उत्क्षेप की भावना पहले अध्ययनों की भांति कर लेनी चाहिए। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि प्रभुवाणीरसिक श्री जम्बू स्वामी "-'सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं-"अर्थात् मनुष्य प्रभुवाणी को सुनकर कल्याणकारी कर्म को जान सकता है और सुन कर ही पापकारी मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है-" इस सिद्धान्त को खूब समझते थे। समझने के साथ-साथ उन्होंने इस सिद्धान्त को जीवन में भी उतार रखा था। इसी लिए अपना अधिक समय वे अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में बैठ कर प्रभुवाणी सुनने में व्यतीत किया करते थे। . पाठकों को यह तो स्मरण ही है कि आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी की प्रार्थना पर विपाकसूत्र के दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का वर्णन सुना रहे हैं। उन में छठे अध्ययन का वर्णन समाप्त हो चुका है। इस की समाप्ति पर आर्य जम्बू स्वामी फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है जिस का कि वर्णन आप फरमा चुके हैं, तो उन्होंने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रश्न को सूत्रकार ने "सत्तमस्स उक्खेवो" इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। तात्पर्य यह है कि छठे अध्ययन का अर्थ सुनने के बाद श्री जम्बू स्वामी ने जो सातवें अध्ययन के अर्थ-श्रवण की जिज्ञासा की थी, उसी को सूत्रकार ने दो पदों द्वारा संक्षेप में प्रदर्शित किया है। उन पदों से अभिव्यक्त सूत्रपाठ निम्नोक्त है "जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?' इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। आर्य जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फरमाना 1. सुनियां सेती जानिए, पुण्य पाप की बात। बिन सुनयां अन्धा जांके, दिन जैसी ही रात॥१॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [553