________________ थे। मात्र धन के आधिक्य ने मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया है, यह बात नहीं कही जा सकती। इसी भान्ति परिवार आदि के अन्य अनेकों बल भी इसे महान् नहीं बना सकते। फिर वही प्रश्न सामने आता है कि मानव के सर्वश्रेष्ठ कहलाने का वास्तविक कारण क्या है ? इस प्रश्न का यदि एक ही शब्द में उत्तर दिया जाए तो वह है-मानवता। भगवान् महावीर ने या अन्य अनेकों महापुरुषों ने जो मानव की श्रेष्ठता के गीत गाए हैं, वे मानवता के रंग से गहरे रंगे हुए सच्चरित्र मानवों के ही गाए हैं। मानव के हाथ, पैर पा लेने से कोई मानव नहीं बन जाता, प्रत्युत मानव बनता है-मानवता को अपनाने से। यों तो रावण भी मानव था, परन्तु लाखों वर्षों से प्रतिवर्ष उसे मारते आ रहे हैं, गालियां देते आ रहे हैं, जलाते आ रहे हैं। यह सब कुछ क्यों ? इसी लिए कि उसने मानव हो कर मानवता का काम नहीं किया, फलतः वह मानव हो कर भी राक्षस कहलाया। शास्त्रों में मानवता की बड़ी महिमा गाई गई है। जहां कहीं भी मानवता का वर्णन है वहां उसे सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ बतलाया गया है। वास्तव में यह बात सत्य भी है। जब तक मानवता की प्राप्ति नहीं होती, तब तक यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं बन पाता। जीवन के उत्थान का सब से बड़ा साधन मानवता ही है-यह किसी ने ठीक ही कहा है। "-आत्मवत् सर्वभूतेषु-" की भावना ही मानवता है / यदि मनुष्य को दूसरे के हित का भान नहीं तो वह मनुष्य किस तरह कहा जा सकता है ? सारांश यह है कि मनुष्य वही कहला सकता है जो यह समझता है कि जिस तरह मैं सुख का अभिलाषी हूं, प्रत्येक प्राणी मेरी तरह ही सुख की अभिलाषा कर रहा है। तथा जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, उसी तरह दूसरा भी दुःख के नाम से भागता है। इसी प्रकार सुख देने वाला जैसे मुझे प्रिय होता है और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है, ठीक इसी भान्ति दूसरे जीवों की भी यही दशा है। उन्हें सुख देने वाला प्रिय और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है। इसी लिए मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि मैं किसी के दुःख का कारण न बनूं। यदि बनूं तो दूसरों के सुख का ही कारण बनूं। इस प्रकार के विचारों का अनुसरण करने वाला मानव प्राणी ही सच्चा मानव या मनुष्य हो सकता है और उसी में सच्ची मानवता या मनुष्यता का निवास रहता है। इस के विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों के प्राण तक लूटने में भी नहीं सकुचाता, वह मानव मानव का आकार तो अवश्य धारण किए हुए है किन्तु उस में मानवता का अभाव है। वह मानव हो कर भी दानव है। वस्तुतः ऐसे मानव ही संसार में नाना प्रकार के दुःखों के भाजन बनते हैं, और दुर्गतियों में धक्के खाते हैं। प्रस्तुत सातवें अध्ययन में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है, जो 552 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध