________________ दिया। वह पितृभक्त होने के स्थान में पितृघातक बनने को तैयार हो गया। किसी ने-ऐहिक जघन्य महत्वाकांक्षाएं मनुष्य का महान पतन कर डालती हैं, यह सत्य ही कहा है। .."-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "-तंजहा खीरधातीए 1 मज्जण० 2 मण्डण. 3 कीलावण से लेकर -सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। "-उम्मुक्कबालभावे जाव विहरति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "जोव्वणगमणुप्पत्ते विन्नायरिणयमेत्ते-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पंचम अध्ययन में लिखा जा चुका है।। "-अन्तराणि-" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "-अन्तराणि, अवसरान् छिद्राणि-अल्पपरिवारत्वानि, विरहाणि-विजनत्वानि-" इस प्रकार है, अर्थात् अन्तर अवसर का नाम है, छिद्र शब्द अल्पपरिवार का होना-इस अर्थ का बोधक है। अकेला होना-इस अर्थ का परिचायक विरह शब्द है। "-बन्धुसिरीए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने-" इस पाठ के अनन्तर पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० बन्धुश्री देवी के दोहदसम्बन्धी पाठ का भी उल्लेख करते हैं, वह पाठ निम्नोक्त है ___"-तए णं तीसे बन्धुसिरीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते-धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ जाव जाओणं अप्पणो पइस्स हिययमंसेण जाव सद्धिं सुरं च 5 जाव दोहलं विणेति। तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति कट्ट तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव झियाइ। रायपुच्छा। बन्धुसिरीभणणं। तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केण वि उवाएणं विणेइ। तए णं सा बन्धुसिरी देवी सम्पुण्णदोहला 5 तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ-" इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है... गर्भस्थिति होने के अनन्तर जब बन्धुश्री देवी का गर्भ तीन मास का हो गया तब उसे इस प्रकार का दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं, यावत् पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, कृत-लक्षण हैं-वे शुभ लक्षणों से युक्त हैं और कृतविभव अर्थात् उन्होंने ही अपने विभव-सम्पत्ति को दानादि शुभकार्यों में लगा कर सफल किया है, उन्हीं का मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जो अपने-अपने पति के मांस यावत् अर्थात् जो तलित, भजित और शूल पर रख कर पकाया गया हो, के साथ 'सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना, इन छ: प्रकार की 1. सुरा, मधु आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [539