________________ सहायक बनोगे तो मैं भी तुम को हर प्रकार से सन्तुष्ट करने का यत्न करूंगा। दूसरी बात यह है कि महाराज को तुम पर पूर्ण विश्वास है, वह अपना सारा निजी काम तुम से ही कराते हैं। इस के अतिरिक्त उन का शारीरिक उपचार भी तुम्हारे ही हाथ से होता है, इसलिए मैं समझता हूँ कि तुम ही इस काम को पूरा कर सकते हो, और मुझे भी तुम पर पूरा भरोसा है। इसलिए मैं तुम से ही कहता हूँ कि तुम जिस समय महाराज का क्षौरहजामत बनाने लगो तो उस समय इधर उधर देख कर तेज़ उस्तरे को महाराज की गरदन में इतने ज़ोर से मारो कि उन की वहीं मृत्यु हो जाए, इत्यादि। चित्र ने उस समय तो नन्दिषेण के इस अनुचित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, कारण कि उस के सामने जो उस समय आधे राज्य का प्रलोभन रक्खा गया था, उस ने उस के विवेक चक्षुओं पर पट्टी बांध दी थी और वह आधे राज्य का शासक होने का स्वप्न देख रहा था। परन्तु जब वह वहां से उठ कर आया तो दैवयोग से उस के विवेकचक्षु खुल गए और वह इस नीचकृत्य से उत्पन्न होने वाले भयंकर परिणाम को प्रत्यक्ष देखने लगा। देखते ही वह एकदम भयभीत हो उठा। तात्पर्य यह है कि उस के अन्तःकरण में वहां से आते ही यह आभास होने लगा कि इतना बड़ा अपराध! वह भी सकारण नहीं किन्तु एक निरपराधी अन्नदाता की हत्या, जिस ने मेरे और राजकुमार के पालन पोषण में किसी भी प्रकार की त्रुटि न रक्खी हो, उस का अवहनन क्या मैं राजकुमार के कहने से करूं, क्या इसी का नाम कृतज्ञता है ! फिर यदि इस अपराध का पता कहीं महाराज को चल गया, जिस की कि अधिक से अधिक सम्भावना है, तो मेरा क्या बनेगा, इस विचार-परम्परा में निमग्न चित्र सीधा राजभवन में महाराज श्रीदाम के पास पहुँचा और कांपते हुए हाथों से प्रणाम कर और कंपित जबान से उस ने महाराज को राजकुमार नन्दिषेण के विचारों को अथ से इति तक कह सुनाया। शास्त्रों में कहा है कि जिस का पुण्य बलवान है, उसे हानि पहुँचाने वाला संसार में कोई नहीं। प्रत्युत हानि पहुंचाने वाला स्वयं ही नष्ट हो जाता है। कुमार नन्दिषेण ने अपने पिता महाराज श्रीदाम को मारने का जो षडयंत्र रचा, उसमें उसको कितनी सफलता प्राप्त हुई, यह तो प्रत्यक्ष ही है। वह तो यह सोचे हुए था कि उसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि जितने तारे गगन में, उतने दुश्मन होंय। कृपा रहे पुण्यदेव की, बाल न बांका होय॥ महाराज श्रीदाम के पुण्य के प्रभाव से राजकुमार नन्दिषेण के पास से उठते ही चित्रनापित के विचारों में एकदम तूफान सा आ गया। उस को महाराज के वध में चारों ओर 544 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध