________________ में। सदरिसणे-सुदर्शन नाम का। जक्खे-यक्ष था, अर्थात् उस का स्थान था। सिरिदामे-श्रीदाम नाम का। राया-राजा था, उसकी।बंधुसिरी-बंधुश्री। भारिया-भार्या थी।पुत्ते-पुत्र ।णंदिवद्धणे-नन्दीवर्धन / णामनामक। कुमारे-कुमार था, जो कि। अहीण-अन्यून-न्यूनतारहित तथा निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त। जाव-यावत्। जुवराया-युवराज (राजा का वह सबसे बड़ा लड़का, जिसे आगे चल कर राज्य मिलने वाला हो) था। तस्स-उस। सिरिदामस्स-श्रीदाम का। सुबन्धू-सुबन्धु / नाम-नाम का।अमच्चे-अमात्यमंत्री। होत्था-था, जो कि। सामभेददंड-साम, भेद, दण्ड और दान नीति में बड़ा कुशल था। तस्स णंउस। सुबन्धुस्स-सुबन्धु। अमच्चस्स-अमात्य का। बहुमित्तापुत्ते-बहुमित्रापुत्र / णाम-नाम का। दारएदारक-बालक। होत्था-था जो कि।अहीण-अन्यून-सम्पूर्ण और निर्दोष पंचेन्द्रिय-युक्त शरीर वाला था। तस्स णं-उस। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का। चित्ते-चित्र। णाम-नाम का। अलंकारिएअलंकारिक-नाई।होत्था-था। सिरिदामस्स-श्रीदाम। रण्णो-राजा का।चित्तं-चित्र-आश्चर्यजनक।बहुविहंबहुविध। अलंकारियकम्म-केशादि का अलंकारिक कर्म-हजामत / करेमाणे-करता हुआ। सव्वट्ठाणेसुसर्वस्थानों में, तथा। सव्वभूमियासु-सर्वभूमिकाओं में, तथा। अन्तेउरे य-अन्तःपुर में। दिण्णवियारेदत्तविचार-अप्रतिषिद्ध गमनागमन करने वाला। यावि होत्था-भी था। मूलार्थ-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में मथुरा नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। वहां भण्डीर नाम का एक उद्यान था। उस में सुदर्शन नामक यक्ष का यक्षायतन-स्थान था। वहां श्रीदाम नामक राजा राज्य किया करता था, उस की बन्धुश्री नाम की राणी थी। उन का सर्वांगसम्पूर्ण और परम सुन्दर युवराज पद से अलंकृत नन्दीवर्धन नाम का पुत्र था। श्रीदाम नरेश का साम, भेद, दण्ड और दान नीति में निपुण सुबन्धु नाम का एक मन्त्री था। उस मन्त्री का बहुमित्रापुत्र नाम का एक बालक था जो कि सर्वांगसम्पन्न और रूपवान था। तथा उस श्रीदाम नरेश का चित्र नाम का एक अलंकारिक-केशादि को अलंकृत करने वाला-नाई था।वह राजा का अनेकविध आश्चर्यजनक अलंकारिककर्मक्षौरकर्म करता हुआ राजाज्ञा से सर्वस्थानों में सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में प्रतिबन्धरहित यातायात किया करता था। टीका-उपक्रम या प्रस्तावना को उत्क्षेप कहते हैं, और प्रस्तुत प्रकरणानुसारी उस का स्वरूप शास्त्रीय भाषा में निम्नोक्त है "-जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है 512 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / [प्रथम श्रुतस्कंध