________________ विधिनिषेधों को वह ढोंग समझता है। वह उचित और अनुचित किसी भी पद्धति का ख्याल किए बिना एकमात्र अपना अभीष्ट स्वार्थ ही सिद्ध करना चाहता है। वह मनुष्य वेश्यागामी, परस्त्रीसेवन करने वाला, मांसाहारी, चोर, दुराचारी एवं सब जीवों को निर्दयतापूर्वक सताने वाला होता है। ऐसा मनुष्य अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है। भले ही फिर उस स्वार्थ की पूर्ति में किसी के जीवन का अन्त भी क्यों न होता हो। . प्रस्तुत छठे अध्ययन में एक ऐसे ही अधमाधम व्यक्ति का जीवन संकलित किया गया है जो राज्यसिंहासन के लोभ में अपने पूज्य पिता जैसे अकारण बन्धु को भी मारने की गर्हित एवं दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति में अपने को लगा लेता है। सूत्रकार ने इस अध्ययन में अधमाधम व्यक्ति के उदाहरण से संसार को अधमाधम जीवन से विरत रहने की तथा अहिंसा सत्य आदि धार्मिक अनुष्ठानों के आराधन द्वारा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को प्राप्त करने के लिए बलवती पवित्र प्रेरणा की है। उस अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नोक्त है मूल-छट्ठस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा णगरी। भंडीरे उज्जाणे। सुदरिसणे जक्खे। सिरिदामे राया। बन्धुसिरी भारिया।पुत्तै णंदिवद्धणे णामं कुमारे अहीण जाव जुवराया।तस्स सिरिदामस्स सुबंधू नामं अमच्चे होत्था सामभेददण्ड / तस्स णं सुबन्धुस्स अमच्चस्स बहुमित्तापुत्ते नामं दारए होत्था अहीणः। तस्स णं सिरिदामस्स रण्णो चित्ते णामं अलंकारिए होत्था सिरिदामस्स रण्णो चित्तं बहुविहं अलंकारियकम्म करेमाणे सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अंतेउरे य दिण्णवियारे यावि होत्था। - छाया-षष्ठस्योत्क्षेपः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये मथुरा नगरी। भंडीरमुद्यानम्। सुदर्शनो यक्षः। श्रीदामा राजा। बन्धुश्री: भार्या / पुत्रो नन्दीवर्धनो नाम दारकोऽभवत्, अहीन यावद् युवराजः। तस्य श्रीदाम्नः सुबन्धुर्नामामात्योऽभवत्, सामभेददण्ड तस्य सुबंधोरमात्यस्य बहुमित्रापुत्रो नाम दारकोऽभवत् अहीन / तस्य श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रो नाम अलंकारिकोऽभवत्। श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रं बहुविधमलंकारिकं कर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्तःपुरे च दत्तविचारश्चाप्यभवत्। - पदार्थ-छट्ठस्स उक्खेवो-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जम्बू !-हे जम्बू ! तेणं-उस। कालेणं-काल में। तेणं समएणं-उस समय में। महुरा-मथुरा / णगरी-नगरी थी। भंडीरे-भंडीर नाम का। उज्जाणे-उद्यान था, उस प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [511