________________ प्रकार के सन्देह का उत्पन्न होना सम्भव हो सकता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से इस विषय . की ओर ध्यान दिया जाए तो उक्त संदेह को यहां पर किसी प्रकार का भी अवकाश नहीं रहता। हिंसक या सावध प्रवृत्ति से किसी ऐहिक कार्य का सिद्ध हो जाना कुछ और बात है तथा हिंसाप्रधान अनुष्ठान का कटु परिणाम होना, यह दूसरी बात है। हिंसा-प्रधान अनुष्ठान से मानव को अपने अभीष्ट कार्य में सफलता मिल जाने पर भी हिंसा करते समय उस ने जिस पाप कर्म का बन्ध किया है उस के विपाकोदय में मानव को उस के कटु फल का अनुभव करना ही पड़ेगा। उससे उस का छुटकारा बिना भोगे नहीं हो सकता। ___ आयुर्वेदीय प्रामाणिक ग्रन्थों में राजयक्ष्मा आदि तपेदिक कतिपय रोगों की निवृत्ति के लिए कपोत प्रभृति अनेक कितनेक जंगली जीवों के मांस का विधान किया गया है। तथा वहां-उक्त जीवों के मांसरस के प्रयोग करने से रोगी का रोग दूर हो जाता है-ऐसा भी लिखा है। परन्तु रोगमुक्त हो जाने पर भी उन जीवों की हिंसा करने से उस समय रोगी पुरुष ने जिस प्रकार के पाप कर्म का बन्ध किया है, उस का फल भी उसे इस भव या परभव में अवश्य भोगना पड़ेगा। इसी प्रकार महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान पापानुष्ठान से जितशत्रु को परबल में विजयलाभ हो जाने पर भी उस भयानक हिंसाचरण का जो कटुतम फल है, वह भी उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। इसलिए कार्यसाधक होने पर भी हिंसा, हिंसा ही रहती है और उस के विधायक को वह नरकद्वार का अतिथि बनाए बिना कभी नहीं छोड़ती। जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत अग्रिम सूत्र में महेश्वरदत्त का मृत्यु के अनन्तर पांचवीं नरक में जाना वर्णित है। दूसरे शब्दों में कहें तो साधक की हिंसामूलक प्रवृत्ति जहां उस के ऐहिक स्वार्थ को सिद्ध करती है वहां उस का अधिक से अधिक अनिष्ट भी सम्पादन करती है। हिंसाजन्य वह कार्यसिद्धि उसी व्यवसाय के समान है कि जिस में लाभ एक रुपये का और हानि सौ रुपये की होती है। कोई भी बुद्धिमान व्यापारी ऐसा व्यवसाय करने को तैयार नहीं हो सकता, जिस में लाभ की अपेक्षा नुकसान सौ गुना अधिक हो। तथापि यदि कोई ऐसा व्यवसाय करता है वह या तो मूर्ख और जड़ है, या वह उक्त व्यवसाय से प्राप्त होने वाली हानि से सर्वथा अनभिज्ञ है। सांसारिक विषय-वासना के विकट जाल में उलझे हुए संसारी जीव अपने नीच स्वार्थ में अन्धे होकर यह नहीं समझते कि जो काम हम कर रहे हैं, इस का हमारी आत्मा के ऊपर क्या प्रभाव होगा। अगर उन्हें अपनी कार्य-प्रवृत्ति में इस बात का भान हो जाए तो वे कभी भी उस में प्रवृत्त होने का साहस न करें। विष के अनिष्ट परिणाम का जिसे सम्यग् ज्ञान है, वह कभी उसे भक्षण करने का साहस नहीं करता, यदि कोई करता भी है तो वह कोई मूर्ख ही हो सकता - 494 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध