________________ अभग्नसेन / ताइं-उन। पंच चोरसताई-पांच सौ चोरों के प्रति। एवं-इस प्रकार। वयासी-कहने लगा। . देवाणुप्पिया!-हे भद्र पुरुषो ! अम्हं-हम को।तं-यह / सेयं खलु-निश्चय ही योग्य है कि / सालाडविंशालाटवी। चोरपल्लिं-चोरपल्ली को। असंपत्तं-असंप्राप्त अर्थात् जब तक चोरपल्ली तक न पहुंचे, तब तक। तं-उस। दंडं-दंडनायक को। अंतरा चेव-मध्य में ही रास्ते में ही। पडिसेहित्तए-निषिद्ध करनारोक देना। तते णं-तदनन्तर। ताई-वे। पंच चोरसताइं- पांच सौ चोर। अभग्गसेणस्स-अभग्नसेन। चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति के उक्त कथन को। तह त्ति-तथेति- "बहुत ठीक" ऐसा कह कर। जाव-यावत्। पडिसुणेति-स्वीकार करते हैं। तते णं-तदनन्तर / से अभग्गसेणे-वह अभनसेन। चोरसेणावती-चोरसेनापति। विपुलं-बहुत।असणं-अशन / पाणं-पान।खाइमं-खादिम। साइमं-स्वादिम वस्तुओं को। उवक्खडावेति 2 त्ता-तैयार कराता है, तैयार करा के। पंचहिं चोरसतेहिं-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ। पहाते-स्नान करता है। जाव-यावत्। पायच्छित्ते-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में किए गए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके। भोयणमंडवंसि-भोजन के मंडप में। तं-उस। विपुलं-विपुल। असणं ४-अशन, पान, खादिम और . स्वादिम वस्तुओं का। सुरं च ५-तथा पंचविध सुरा आदि का। आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। विहरति-विहरण करने लगा। जिमियभुत्तुत्तरागते वि य णं समाणे-भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर। आयंते-आचमन किया। चोक्खे-लेप आदि को दूर करके शद्धि की इस लिए। परमसुइभूते-परमशुचिभूत-परमशुद्ध हुआ वह अभग्नसेन / पंचहिं चोरसतेहि-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ। अल्लं-आर्द्र-गीले। चम्म-चमड़े पर। दुरूहति-आरुढ़ होता है-चढ़ता है। 2 त्ता 1. अभग्नसेन और उसके साथियों ने जो आर्द्र चर्म पर आरोहण किया है उस में उन का क्या हार्द रहा हुआ है अर्थात् उन के ऐसा करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में तीन मान्यताएं उपलब्ध होती हैं, वे निम्नोक्त हैं प्रथम मान्यता आचार्य श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में-"अल्लचम्मं दुरुहति,त्ति आर्दै चारोहति मांगल्यार्थमिति"- इस प्रकार है। इसका भाव है-कि अभग्नसेन और उसके साथियों ने जो, आई चर्म पर आरोहण. किया है,वह उन का एक मांगलिक अनुष्ठान था। तात्पर्य यह है कि-"विजध्वंसकामो मंगलमा-चरेत् "-अर्थात् अपने उद्दिष्ट कार्य में आने वाले विघ्नों के विध्वंस के लिए व्यक्ति सर्वप्रथम मंगल का आचरण करे। इस अभियुक्तोक्ति का अनुसरण करते हुए अभग्नसेन और उस के साथियों ने दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने के लिए किए जाने वाले प्रस्थान से पूर्व मंगलानुष्ठान किया था। मंगलों के विभिन्न प्रकारों में से आर्द्रचर्मारोहण भी उस समय का एक प्रकार समझा जाता था। दूसरी मान्यता परम्परानुसारिणी है। इस में यह कहा जाता है कि आर्द्र चर्म पर आरोहित होने का अर्थ है-अपने को "-विकट से विकट परिस्थिति के होने पर भी पांव पीछे नहीं हटेगा, प्रत्युत-"कार्य वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्"-अर्थात् कार्य की सिद्धि करूंगा अन्यथा उसी की सिद्धि में देहोत्सर्ग कर दूंगा, की पवित्र नीति के पथ का पथिक बनूंगा-" इस प्रतिज्ञा से आबद्ध करना। तीसरी मान्यता वालों का कहना है कि जिस प्रकार आई चर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार इस पर आरोहण करने वाला भी धन, जनादि वृद्धिरूप प्रसार को उपलब्ध करता है इसी महत्त्वाकांक्षापूर्ण भावना को सन्मुख रखते हुए अभग्नसेन और उस के 500 साथियों ने आर्द्र चर्म पर आरोहण किया था। 400 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध