________________ मैं नगर के गाय आदि पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पंचविध सुरा आदि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन और परिभोग करूं और उन्हें दूसरी स्त्रियों को भी दूं। मेरे इस दोहद के पूर्ण न होने के कारण मैं आर्त्तध्यान कर रही हूं। भद्रा की इस बात को सुन कर तथा सोच विचार कर सुभद्र सार्थवाह भद्रा से बोले भद्रे ! तुम्हारे इस गर्भ में अपने पूर्वसंचित पापकर्म के कारण से ही यह कोई अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला जीव आया हुआ है, इसलिए तुम्हें ऐसा पापपूर्ण दोहद उत्पन्न हुआ है। अच्छा, इस का भला हो, ऐसा कहकर उस सुभद्र सार्थवाह ने किसी उपायविशेष से अर्थात् मांस और मदिरा के समान आकार वाले फलों और रसों को देकर भद्रा के दोहद को पूर्ण किया। तब दोहद के पूर्ण होने पर वाञ्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाने के कारण, उसका सम्मान हो जाने पर समस्त मनोरथों के पूर्ण होने से अभिलाषा की निवृत्ति होने पर तथा इच्छित वस्तु के खा लेने पर प्रसन्नता को प्राप्त हुई भद्रा सार्थवाही उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करने लगी। प्रस्तुत सूत्र में छण्णिक छागलिक के जीव का सुभद्रा के गर्भ में आना, उसका जन्म लेने पर शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध होना तथा माता पिता के देहान्त एवं घर से निकालने तथा सुदर्शना के घर में प्रविष्ट होने और वहां से निकाले जाने आदि का सविस्तार वर्णन किया गया है। सुषेण मंत्री के द्वारा सुदर्शना के वहां से निकाले जाने पर शकट कुमार की क्या दशा हुई और उसने क्या किया तथा उसका अन्तिम परिणाम क्या निकला, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं- मूल-तते णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ निच्छूढे समाणे अन्नत्थ कत्थइ सुई वा ३अलभमाणे अन्नया कयाइ रहस्सियं सुदरिसणागिहं अणुपविसति '2 त्ता सुदरिसणाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति / इमं च णं सुसेणे अमच्चे पहाते जाव सव्वालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुराए परिक्खित्ते जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता सगडं दारयं सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणं पासति 2 त्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहिं गेण्हावेति 2 अट्ठि जाव महियं करेति 2 अवओडगबंधणं कारेति 2 जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छति 2 करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! सगडे दारए ममं अंतेउरंसि अवरद्धे।तते णं महचंदेराया सुसेणं अमच्चं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [465