________________ है, इसके विपरीत यदि संहनन निर्बल है तो शरीर भी निर्बल होगा। अतः अभग्नसेन इतना भीषण संकट सह लेने पर भी जो जीवित रहा, अर्थात् उस का प्राणान्त नहीं होने पाया तो इस में केवल संहननगत बलवत्ता को ही कारण समझना चाहिए। आज भी संहननगत भिन्नता के कारण व्यक्तियों में न्यूनाधिक बल पाया जाता है। अपनी छाती पर शिला रखवा कर उसे हथौड़ी से तुड़वाने वाले तथा अपने वक्षस्थल पर हाथी को चलवाने वाले एवं चलते इंजन को रोकने का साहस रखने वाले वीराग्रणी राममूर्ति को कौन नहीं जानता ? सारांश यह है कि संहननगत बलवत्ता के सन्मुख कुछ भी असम्भव नहीं है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। अभग्नसेन चोरसेनापति कुल सैंतीस वर्ष की आयु भोग कर शूली के द्वारा कालमृत्यु को प्राप्त कर पूर्वकृत दुष्कर्मों से रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, नरक में भी उन नारकियों में उत्पन्न होगा, जिन की उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम की है। एवं नानाविध नरक यातनाओं का अनुभव करेगा। 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में लिखा है कि अभग्नसेन के आगे उसके लघुपिताओं (चाचों), महापिताओंतायों, पोतों, पोतियों, दोहतों तथा दोहतियों आदि पारिवारिक लोगों को ताडित किया गया। साथ में अभग्नसेन की आयु 37 वर्ष की बताई है। यहां प्रश्न होता है कि इतनी छोटी आयु में दोहतियों आदि का होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। जो कि निम्नोक्त हैं एक-अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति का परिवार अभग्नसेन के अपने पितृपद पर आरूढ़ हो जाने के कारण उसे उसी दृष्टि से अर्थात् पिता की दृष्टि से देखता था और अभग्नसेन भी उस पितृपरिवार का पिता की भान्ति पालन पोषण किया करता था। इसी दृष्टि से सूत्रकार ने विजय चोरसेनापति के परिवार को अभग्नसेन का परिवार बताया है। दो-अभग्नसेन चोरसेनापति के ज्येष्ठ भाई की सन्तति भी उसके पोता, दोहता आदि सम्बन्धों से कही जा सकती है। अतः यहां जो अभग्नसेन के पोते, दोहते आदि पारिवारिक लोगों का उल्लेख किया गया है, उस में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं है। 2. एक योजन (चार कोस) गहरा, एक योजन लम्बा, एक योजन विस्तार वाला कूप हो, उसमें युगलियों के केश-बाल अत्यन्त सूक्ष्म किए हुए अर्थात् जिनके खण्ड का और खण्ड न हो सके, भर दिए जाएं, तथा वे इतने ढूंस कर भरे जावें कि जो एक वज्र की भान्ति घनरूप हो जायें, तथा जिन पर चक्रवर्ती की सेना (32 हजार मुकुटधारी राजा, 84 लाख हाथी, 84 लाख घोड़े, 84 लाख रथ तथा 96 करोड़ पैदल सेना) भ्रमण करती हुई चली जाए तब भी एक केशखण्ड मुड़ने नहीं पाए। अथवा गंगा, यमुनादि नदियों का जल उस कूप पर से बहने लग जाए, तब भी एक बाल बहाया या आर्द्र न किया जा सके, एवं जिस कूप पर उल्कापात आदि की अग्नि की वर्षा जोरों के साथ हो तब भी उन केशों में से एक भी केश दग्ध न हो सके, ऐसे ढूंस कर भरे हुए उस कूप में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशखण्ड निकाला जाए। इसी भान्ति निकालते-निकालते जितने काल में वह कूप खाली हो जाए, उतने काल की एक पल्योपम संज्ञा होती है। ऐसे दस कोटाकोटि (दस करोड़ को दस करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या हो वह) पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। सारांश यह है कि अंकों द्वारा न बताई जा सकने वाली बड़ी लम्बी आयु को सूचित करने के लिए सागरोपम शब्द का आश्रयण किया जाता है। 3. नरक में किस तरह की कल्पनातीत यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, इस विषय का शास्त्रीय अनुभव प्राप्त करने के इच्छुकों को श्री उत्तराध्ययन सूत्र के 19 वें अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की जीवनी का साद्योपान्त अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि मृगापुत्र ने अपने माता-पिता को स्वयं भोगी गई नरक-सम्बन्धी वेदनाओं का अपने जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा बोध कराया था। जोकि नरकसम्बन्धी सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए काफी है। 432 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध