________________ अह चउत्थं अज्झयणं अथ चतुर्थ अध्याय ... ब्रह्म अर्थात् आगम-धर्मशास्त्र अथवा परमात्मा में आचरण करना 'ब्रह्मचर्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि परमात्मध्यान में तल्लीन होना तथा धर्मशास्त्र का सम्यक् स्वाध्याय करना, अर्थात् उसमें प्रतिपादित शिक्षाओं को जीवन में उतारना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य का यह व्युत्पत्ति-लभ्य यौगिक अर्थ है जोकि आजकल एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो चुका है। आजकल ब्रह्मचर्य का रूढ़ अर्थ-मैथुन का निरोध है, अर्थात् स्त्री का पुरुष के सहवास से पृथक् रहना और पुरुष का स्त्री के संपर्क से पृथक् रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। प्रकृत में हमें इसी रूढ़ अर्थ का ही ग्रहण करना इष्ट है। , ब्रह्मचर्य-मैथुन निवृत्ति से कितना लाभ सम्भव हो सकता है, यह जीवन की उन्नति के शिखर तक पहुंचने के लिए कितना सहायक बन सकता है, तथा आत्मा के साथ लगी हुई विकट कर्मार्गलाओं को तोड़ने में यह कितना सिद्धहस्त रहता है, तथा इसके प्रभाव से यह आत्मा अपनी ज्ञान-ज्योति के दिव्य प्रकाश में कितना विकास कर सकता है, इत्यादि बातों का यदि अन्वय दृष्टि की अपेक्षा व्यतिरेक दृष्टि से विचार किया जाए तो अधिक संगत होगा। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के यथाविधि पालन करने से साधक व्यक्ति में जिन सद्गुणों का संचार होता है उन पर दृष्टि डालने की अपेक्षा यदि ब्रह्मचर्य के विनाश से उत्पन्न होने वाले 1. ब्रह्मणि चरणम्-आचरणमिति ब्रह्मचर्यम्। 2. निम्नलिखित गाथाओं में अब्रह्मचर्य-दुराचार की निकृष्टता का दिग्दर्शन कराया गया हैअबंभचरिअंघोरं पमायं दुरहिट्ठिनायरन्ति मुणी लोए भेआययणवज्जिणो॥१६॥ छाया-अब्रह्मचर्यं घोरं प्रमादं दुरधिष्ठितम्। नाचरन्ति मुनयो लोके भेदायतन-वर्जिनः॥ मूलमेयमहम्मस्स महादोस-समुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयन्ति णं॥१७॥ छाया-मूलमेतद् अधर्मस्य महादोषसमुच्छ्रयं / तस्माद् मैथुनसंसर्ग निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति / (दशवैकालिक सूत्र अ.6) अर्थात् यह अब्रह्मचर्य अनंत संसार का वर्धक है, प्रमाद का मूल कारण है और यह नरक आदि रौद्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [437