________________ गाल में सदा के लिए जा छिपी हैं। उसने अपने आज तक के सारे जीवन में किसी शिशु को ' दूध पिलाने या जी भर कर मुख देखने तक का भी सौभाग्य प्राप्त नहीं किया। इसी आशय को प्रस्तुत सूत्र में भद्रादेवी को जातनिन्दुका कह कर व्यक्त किया गया है। जातनिन्दुका का अर्थ है-जिस के बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाएं। भद्रादेवी की भी यही दशा थी, उसके बच्चे भी उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाते थे। कार्यनिष्पत्ति के कारणंसमवाय में समय को अधिक प्राधान्य प्राप्त है। इसकी अनुकूलता और प्रतिकूलता पर संसार का बहुत कुछ कार्यभार निर्भर रहता है। जब समय अनुकूल होता है तो अभिलषित कार्यों की सिद्धि में भी देरी नहीं लगती। एवं जब समय प्रतिकूल होता है तो बना बनाया खेल भी बिगड़ जाता है। मानव की सारी योजनाएं छिन्न-भिन्न हो कर लुप्त हो जाती हैं। इसीलिए नीतिकारों ने “१समय एव करोति बलाबलम्" यह कह कर उसकी बलवत्ता को अभिव्यक्त किया है। ___ सुभद्र सार्थवाह की भद्रा देवी भी पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के विपाक-फल से प्रतिकूल समय के ही चक्र में फंसी हुई सन्तति के वियोग-जन्य दुःख को उठाती रही, परन्तु आज उस के किसी शुभ कर्म के उदय से उसके दुर्दिनों का अर्थात् प्रतिकूल समय का चक्र बदल गया और उसके स्थान में अब अनुकूल समय का शुभागमन हुआ। तात्पर्य यह है कि शुभ समय ने उसके जीवन में एक नवीन झांकी से अप्रत्याशित-असंभावित आशा का संचार किया और उस से उस को कुछ थोड़ा सा अश्वासन मिला। इधर छण्णिक छागलिक-वधिक का जीव अपनी नरक-सम्बन्धी भवस्थिति को पूर्ण कर के वहां से निकल कर इसी भद्रा देवी के उदर में पुत्ररूप से अवतरित हुआ। उस के गर्भ में आते ही भद्रा देवी की मुाई हुई आशालता में फिर से कुछ सजगता आनी आरम्भ हुई। ज्योंज्यों गर्भ बढ़ता गया त्यों-त्यों उसके हृदयाकाश में प्रकाश की भी मन्द सी रेखा दिखाई देने लगी। अन्त में लगभग नव मास पूरे होने पर किसी समय उसने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया। लोक में ऐसी किंवदन्ती आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि “पयसा दग्धः पुमान् तक्रमपि फूत्कृत्य पिबति" अर्थात् दूध का जला हुआ पुरुष छाछ को भी फूंकें मार-मार कर पीता है। इसी भांति सुभद्रा देवी भी बहुत से बालकों को जन्म दे कर भी उन से वंचित रह रही थी। उस ने पुत्र के होते ही उसे एक गाड़े के नीचे रख दिया और फिर से उठा कर अपनी गोद में 1. समय एव करोति बलाबलम्, प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम्। शरदि हंसरवाः परुषीकृत-स्वरमयूरमयू रमणीयताम्॥१॥ (शिशुपालवध). 458 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध