________________ निकले। भगवान् ने उन्हें धर्मदेशना दी। तदनन्तर धर्म का श्रवण कर जनता और राजा सब चले गए। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथियों, अश्वों और पुरुषों को देखा, उन पुरुषों के मध्य में अवकोटकबन्धन से युक्त, कान और नासिका कटे हुए उद्घोषणायुक्त तथा सस्त्रीकस्त्रीसहित एक पुरुष को देखा, देख कर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया और भगवान् से आकर निवेदन किया तथा भगवान उत्तर में इस प्रकार कहने लगे टीका-साहंजनी नगरी का वातावरण बड़ा सुन्दर और शान्त था। वहां की प्रजा अपने भूपति के न्याययुक्त शासन से सर्वथा प्रसन्न थी। राजा भी प्रजा को अपने पुत्र के समान समझता था। जिस प्रकार शरीर के किसी अंग में व्यथा होने से सारा शरीर व्याकुल हो उठता है ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी प्रजा की व्यथा से विकल हो उठते और उसे शान्त करने का भरसक प्रयत्न किया करते थे। वे सदा प्रसन्न रहते और यथासमय धर्म का आराधन करने में समय व्यतीत किया करते थे। आज उन की प्रसन्नता में आशातीत वृद्धि हुई, क्योंकि उद्यानपाल-माली ने आकर इन्हें देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने का शुभ संदेश दिया। .. माली ने कहा-पृथिवीनाथ ! आज मैं आपको जो समाचार सुनाने आया हूं, वह आप को बड़ा ही प्रिय लगेगा। हमारे देवरमण उद्यान में आज पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपने शिष्यपरिवार के साथ पधारे हैं। बस यही मंगल समाचार आप को सुनाने के लिए मैं आप की सेवा में उपस्थित हुआ हूं, ताकि अन्य जनता की तरह आप भी उनके पुण्यदर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हुए अपनी आत्मा को कृतकृत्य बनाने का सुअवसर उपलब्ध कर सकें। उद्यानपाल के इन कर्णप्रिय मधुर शब्दों को सुन कर महाराज महाचन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। तथा इस मंगल समाचार को सुनने के उपलक्ष्य में उन्होंने उद्यानपाल को भी उचित पारितोषिक देकर प्रसन्न किया, तथा स्वयं वीर प्रभु के दर्शनार्थ उन की सेवा में उपस्थित होने के लिए बड़े उत्साह से तैयारी करने लगे। इधर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के देवरमण उद्यान में पधारने का समाचार सारे शहर में विद्युत्प्रकाश की भान्ति एक दम फैल गया। नगर की जनता उन के दर्शनार्थ वेगवती नदी के प्रवाह की तरह उद्यान की ओर चल पड़ी तथा महाराज महाचन्द्र भी बड़ी सजधज के साथ भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े, और उद्यान में पहुंचकर वीर प्रभु के जी प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [445