________________ श्रेष्ठि-कुल में। पुत्तत्ताए-पुत्र रूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। से णं-वह। / उम्मुक्कबालभावे-बालभाव-बाल्यावस्था को त्याग कर। जहा-जिस प्रकार। पढमे-प्रथम अध्ययन में प्रतिपादन किया गया। एवं-उसी प्रकार। जाव-यावत् / अंतं-जन्म-मरण का अन्त / काहि-करेगा अर्थात् जन्म-मरण से रहित हो जाएगा।त्ति-इति शब्द समाप्त्यर्थक है। निक्खेवो-निक्षेप अर्थात् उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। तइयं-तृतीय। अज्झयणं-अध्ययन। समत्तं-समाप्त हुआ। मूलार्थ-भगवन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति कालावसर में काल करके कहां जाएगा ? तथा कहां पर उत्पन्न होगा? गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति 37 वर्ष की परम आयु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में शूली पर चढ़ाए जाने से काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उत्पन्न होगा। तदनन्तर प्रथम नरक से निकले हुए का शेष संसारभ्रमण प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित मुंगापुत्र के संसार-भ्रमण की तरह समझ लेना, यावत् पृथ्वीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर बनारस नगरी में शकर के रूप में उत्पन्न होगा, वहां पर शौकरिकों-शूकर के शिकारियों द्वारा आहत किया हुआ फिर उसी बनारस नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा।वहां बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, यावत् निर्वाण पद को प्राप्त करेगा-जन्म और मरणं का अन्त करेगा। : निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिए। . ॥तृतीय अध्ययन समाप्त॥ ___टीका-प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न तथा भगवान् की ओर से दिए गए उस के उत्तर का वर्णन किया गया है। भगवन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति यहां से काल करके कहां जाएगो, और कहां पर उत्पन्न होगा, और अन्त में उसका क्या बनेगा, ये गौतम स्वामी के प्रश्न हैं, इनके उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया वह निनोक्त है गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति अपने पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों के प्रभाव से महती वेदना का अनुभव करेगा और पुरिमताल नगर के महाबल नरेश उसे आज ही अपराह्नकाल में उसके अपराधों के परिणामस्वरूप सूली पर चढ़ा देंगे। ___प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि अभग्नसेन को अपराह्नकाल में सूली पर चढ़ाया जाएगा, इस पर यहां आशंका होती है कि अभग्नसेन की-पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर चाबुकों के भीषण प्रहारों से निर्दयतापूर्वक ताड़ित करना, उसी के शरीर 430 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध