________________ पकड़ में न आने वाली (2) शत्रु की सेना के सन्मुख ठहरा नहीं जा सकता। इति कृत्वा का . अर्थ है इस कारण से। "-करयल जाव एवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से और साथ में उल्लेख किए गए बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है, उस को इसी अध्ययन में पीछे लिखा जा चुका है। "उरंउरेणं" यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। इस का अर्थ साक्षात् सन्मुख होता है। उरंउरेणं त्ति साक्षादित्यर्थः। शास्त्रों में नीति के, "सामनीति, दाननीति, भेदनीति और दण्डनीति" ये चार भेदप्रकार बताए गए हैं, इस में अन्तिम दण्डनीति है, जिस का कि अन्त में प्रयोग करना नीतिशास्त्र सम्मत है, और तभी वह लाभप्रद हो सकता है। महाबल नरेश ने पहले की तीनों नीतियों की उपेक्षा कर के सब से प्रथम दण्डनीति का अनुसरण किया जो कि नीतिशास्त्र की दृष्टि से समुचित नहीं था। अतः इसका जो परिणाम हुआ वह पाठकों के समक्ष ही है। तब महाबल नरेश ने अभग्नसेन के निग्रहार्थ दण्डनीति को त्याग कर पहली तीन साम, दान और भेद नीतियों के अनुसरण करने का जो आचरण किया वह नीतिशास्त्र की दृष्टि से उचित ही कहा जाएगा। साम आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है (1) प्रेमोत्पादक वचन 'साम कहलाता है। (2) राजा का सैनिकों में और सैनिकों का राजा में अविश्वास उत्पन्न करा देने का नाम भेद है। (3) दान का ही दूसरा नाम उपप्रदान है, उस का अर्थ है-अभितार्थ दान अर्थात् इच्छित पदार्थों का देना। इन तीनों से जहां कार्य की सिद्धि न हो सके वहां पर चौथी अर्थात् दण्डनीति (दण्ड दे कर अर्थात् पीड़ित करके शासन में रखने की राजाओं की नीति) का प्रयोग किया जाता है। ऐसा नीतिज्ञों का आनुभविक आदेश ___ "जे वि य से अब्भिंतरगा सीसगभमा"- इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है येऽपिच से' तस्याभग्नसेनस्याभ्यन्तरका आसन्ना मंत्रिप्रभृतयः किम्भूताः?"सीसगभम त्ति" शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमो-भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यभ्रमाः, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थः अथवा शीर्षकं शिर एव शिरः कवचं वा तस्य भ्रमोऽव्यभिचारितया शरीररक्षकत्वेन वा ते शीर्षकभ्रमाः-अर्थात् प्रस्तुत सूत्र में अभ्यन्तरक शब्द से-अभग्नसेन के मन्त्री आदि सहचर, यह अर्थ ग्रहण किया गया है, और "सीसगभमाः" इस के 1. साम-प्रेमोत्पादकं वचनम्। भेदः-स्वामिनः पदातिषु पदातीनां च स्वामिनि अविश्वासोत्पादनम्। उपप्रदानम्-अभिमतार्थदानमिति टीकाकारः। 410 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध