________________ कि जीव के स्बोपार्जित कर्मों में से शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म अपने-अपने विपाकोदय में फल देते हैं और स्थिति पूरी होने पर फल दे कर निवृत्त हो जाते हैं। ___अभग्नसेन को शिशु-काल में जो सुख मिल रहा है, वह उसके प्राक्तन किसी शुभ कर्म का फल है, और युवावस्था में उस को जो सांसारिक सुखों के उपभोग की विपुल सामग्री मिली है, वह भी उसके सत्तागत कर्मों के उदय में आए हुए किसी पुण्य का ही परिणाम है। इसके अनन्तर पुण्यकर्म के समाप्त हो जाने पर जब उसके अशुभ कर्म का विपाकोदय होगा, तो उसे दुःख भी अवश्य भोगना पड़ेगा। कर्म शुभ हो या अशुभ एक बार उस का बन्ध हो जाने पर अगर उस की निर्जरा नहीं हुई तो वह फल अवश्य देगा और देगा तब जब कि वह उदय में आएगा। इसी सिद्धान्त के अनुसार कुमार अभग्नसेन के शिशु कालीन सम्बन्धी सुख तथा युवावस्था के ऐश्वर्योपभोग का प्रश्न बड़ी सुगमता से समाहित हो जाता है। "अट्ट दारियाओंजाव अट्टओ दाओ-" इन पदों से अभिप्रेत पदार्थ का वर्णन करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "अट्ठ दारियाउ त्ति" अस्यायमर्थः-तए णं तस्स अभग्गसेणस्स अम्मापियरो अभग्गसेणं कुमारं सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि अट्टहिं दारियाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिंगेण्हविंसुत्ति।यावत्करणाच्चेदंद्रश्यं-तएणंतस्स अभग्गसेणकुमारस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइयाणं दलयन्ति त्ति। "अट्ठओ दाउ त्ति" अष्ट परिमाणमस्येति अष्टको दायो दानं 'वाच्य' इति शेषः। स चैवं "-अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ 1. किसी भी व्यक्ति की मात्र पापमयी प्रवृत्ति के दिग्दर्शन कराने का यह अर्थ नहीं होता कि उस के जीवन में पुण्यमयी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव ही रहता है। अतः अभग्नसेन ने निर्णय के भव में मात्र पापकर्म की ही उपार्जना की थी, पुण्यं का उसके जीवन में कोई भी अवसर नहीं आने पाया, अथवा निर्णय से पूर्व के भवों में उसके जीवन में सत्तारूपेण पण्यकर्म नहीं था. यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा ही होता तो अभग्नसेन के भव में उसे देव-दुर्लभ मानव भव और निर्दोष पांचों इन्द्रियों का प्राप्त होना, पांच धायमाताओं के द्वारा लालन-पालन , आठ कन्याओं का पाणिग्रहण, एवं अन्य मनुष्य-सम्बन्धी ऐश्वर्य का उपभोग इत्यादि पुण्यलब्ध सामग्री की प्राप्ति न हो पाती। अतः अभग्नसेन के कर्मों में सत्तारूपेण पुण्य प्रकृति भी थी, यह मानना ही होगा। हां, यह ठीक है कि जब पुण्य उदय में और पाप सत्तारूप में होता है तब पुण्य के प्रभाव से व्यक्ति का जीवन बड़ा वैभवशाली एवं आनन्दपूर्ण बन जाता है, इसके विपरीत जब पुण्य सत्तारूप में और पाप उदय में रहता है, तो वह पाप भीषण दुःखों का कारण बनता है। एक बात और भी है कि अभग्नसेन ने निर्णय के भव में जिन दुष्कर्मों की उपार्जना की थी उन का दण्ड उसे पर्याप्त मात्रा में तीसरी नरंक में मिल चुका था, वहां उसे सात सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का उपभोग करना पड़ा था. तब दष्कर्मों का दण्ड भोग लेने के कारण होने वाली उसकी कर्म-निर्जरा भी उपेक्षित नहीं की जा सकती, फिर भले ही वह निर्जरा देशतः (आंशिक) ही क्यों न हो। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [383