________________ टीका-प्राप्त हुई वस्तु का सदुपयोग या दुरुपयोग करना पुरुष के अपने हाथ की बात होती है। एक व्यक्ति अपने बाहुबल से अत्याचारियों के हाथों से पीड़ित होने वाले अनेक अनाथों, निर्बलों और पीड़ितों का संरक्षण करता है और दूसरा उसी बाहुबल को दीन अनाथ जीवों के विनाश में लगाता है। बाहुबल तो दोनों में एक जैसा है परन्तु एक तो उस के सदुपयोग से पुण्य का संचय करता है, जबकि दूसरा उसके दुरुपयोग से पापपुञ्ज को एकत्रित कर रहा चोरपल्ली में रहने वाले चोरों के द्वारा सेनापति के पद पर नियुक्त होने के बाद अभनसेन ने अपने बल और पराक्रम का सदुपयोग करने के स्थान में अधिक से अधिक दुरुपयोग करने का प्रयास किया। नागरिकों को लूटना, ग्रामों को जलाना, मार्ग में चलते हुए मनुष्यों का सब कुछ छीन लेना और किसी पर भी दया न करना, उसके जीवन का एक कर्तव्यविशेष बन गया था। सारे देश में उसके इन क्रूरता-पूर्ण कृत्यों की धाक मची हुई थी। देश के लोग उस के नाम से कांप उठते थे। ____एक दिन उसके अत्याचारों से नितान्त पीड़ित हुए देश के लोग वहां के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पुरुषों को बुला कर आपस में इस प्रकार विचार करने लगे कि चोरसेनापति अभनसेन ने तो अत्याचार की अति ही कर दी है, वह जहां जिसको देख पाता है वहां लूट लेता है। नगरों, ग्रामों और शहरों में भी उस की लूट से कोई बचा हुआ दिखाई नहीं देता, उसने तो गरीबों को भी नहीं छोड़ा। घरों को जलाना और घर में रहने वालों पर अत्याचार करना तो उसके लिए एक साधारण सी बात बन गई है। अधिक क्या कहें उसने तो हमारे सारे देश के नाक में दम कर रखा है। इसलिए हमको इसके प्रतिकार का कोई न कोई उपाय अवश्य सोचना चाहिए। अन्यथा हमें इससे भी अधिक कष्ट सहन करने पड़ेंगे और निर्धन तथा कंगाल होकर यहां से भागना पड़ेगा। इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय करते हुए अन्त में उन्होंने यह निश्चय किया कि इस आपत्ति के प्रतिकार का एकमात्र उपाय यही है कि यहां के नरेश महाराज के पास जाकर अपनी सारी आपत्ति का निवेदन किया जाए और उन से प्रार्थना की जाए कि वे हमारी इस दशा में पूरी-पूरी सहायता करें। तदनन्तर इस सुनिश्चित प्रस्ताव के अनुसार उन में से मुख्य-मुख्य लोग राजा के योग्य एवं बहुमूल्य भेंट लेकर पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थित हुए और महाबल नरेश के पास उपस्थित हो भेंट अर्पण करने के पश्चात् अभग्नसेन के द्वारा किए गए अत्याचारों को सुनाकर उन के प्रतिकार की प्रार्थना करने लगे। 390 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध