________________ उक्किट्ठ-उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि तथा सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा। जाव-यावत्-समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को शब्दायमान। करेमाणे-करता हुआ। पुरिमतालं-पुरिमताल। णगरंनगर के। मझमझेणं-मध्य में से। निग्गच्छति २-त्ता-निकलता है, निकल कर। जेणेव-जिधर। सालाडवी-शालाटवी। चोरपल्ली-चोरपल्ली थी। तेणेव-उसी तरफ उसने। पहारेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय किया। ___ मूलार्थ-महाबल नेरश अपने पास उपस्थित हुए उन जनपदीय-देश के वासी पुरुषों के पास से उक्त वृत्तान्त को सुन कर क्रोध से तमतमा उठे तथा उस के अनुरूप मिसमिस शब्द करते हुए माथे पर तिउड़ी चढ़ा कर अर्थात् क्रोध की सजीव प्रतिमा बने हुए दण्डनायक-कोतवाल को बुलाते हैं, बुला कर कहते हैं कि हे भद्र ! तुम जाओ, और जा कर शालाटवी चोरपल्ली को नष्ट भ्रष्ट कर दो-लूट लो और लूट करके उस के चोरसेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो। दण्डनायक महाबल नरेश की इस आज्ञा को विनय-पूर्वक स्वीकार करता हुआ दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर यावत् आयुधों और प्रहरणों से लैस हुए अनेक पुरुषों को साथ ले कर, हाथों में फलकढाल बांधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से और महान् उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि, सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को करता हुआ पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है। टीका-करुणा-जनक दुःखी हृदयों की अन्तर्ध्वनि को व्यक्त शब्दों में सुन कर महाबल नरेश गहरे सोच विचार में पड़ गए। वे विचार करते हैं कि मेरे होते हुए मेरी प्रजा इतनी भयभीत और दुःखी हो, सुख और शान्ति से रहना उसके लिए अत्यन्त कठिन हो गया हो यह किस प्रकार का राज्य-प्रबन्ध! जिस राजा के राज्य में प्रजा दु:खों से पीड़ित हो, अत्याचारियों के अत्याचारों से संत्रस्त हो रही हो, क्या वह राजा एक क्षणमात्र के लिए राज्यसिंहासन पर बैठने के योग्य हो सकता है ! धिक्कार है मेरे इस राज्य-प्रबन्ध को और धिक्कार है मुझे जिस ने स्वयं अपनी प्रजा की देखरेख में प्रमाद किया। अस्तु, कुछ भी हो, अब तो मैं इन दुःखियों के दुःख को दूर करने का भरसक प्रयत्न करूंगा। हर प्रकार से इन को सुखी बनाऊंगा। जिन आतताइयों ने इन को लूटा है, इन के घर जलाए हैं, इन को निर्धन और कंगाल बनाया है, उन अत्याचारियों को जब तक पूरी तरह दण्डित न कर लूंगा, तब तक चैन से नहीं बैलूंगा। इस विचार-परम्परा में कुछ क्षणों तक निमग्न रहने के बाद महाराज महाबल ने अपने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [395