________________ इत्यादि यावद्-१अट्ट पेसण-कारियाओ अन्नं च विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावएजं"। अर्थात्-मूलसूत्र में पठित-अट्ठ दारियाओ-यह पाठ सांकेतिक है, और वह-अभग्नसेन के युवा होने के अनन्तर माता-पिता ने शुभ तिथि नक्षत्र और करणादि से युक्त शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन का.एक ही दिन में आठ कन्याओं से पाणिग्रहण-विवाहसंस्कार करवाया-इस अर्थ का संसूचक है। -जाव यावत्-पद-आठ लड़कियों के साथ विवाह करने के अनन्तर अभग्नसेन के माता-पिता उस को इस प्रकार का (निनोक्त) प्रीतिदान देते हैं-इस अर्थ का परिचायक है। ___जिसका परिमाण आठ हो उसे अष्टक कहते हैं / दान को दूसरे शब्दों में दाय कहते हैं और वह इस प्रकार है आठ करोड़ का सोना दिया जो कि आभूषणों के रूप में परिणत नहीं था। आठ करोड़ का वह सुवर्ण दिया जोकि आभूषणों के रूप में परिणत था, इत्यादि से लेकर यावत् आठ दासियां तथा और भी बहुत सा धन कनक-सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल-मूंगा, रक्तरत्न और संसार की उत्तमोत्तम वस्तुएं तथा अन्य उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति अभग्नसेन को विवाह के उपलक्ष्य में हुई। इन भावों को ही अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने-अट्ठओ दाओ-ये सांकेतिक पद संकलित किए हैं। "उप्पिं भंजति" इन पदों का अर्थ टीकाकार के शब्दों में "-उप्पिं भंजति त्ति-" अस्यायमर्थः- तएणं से अभग्गसेणे कुमारे उप्पिंपासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडएहिं उवगिजमाणे विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरइ"- इस प्रकार है। इस का तात्पर्य यह है कि विवाह के अनन्तर कुमार अभग्नसेन उत्तम तथा विशाल प्रासाद-महल में चला जाता है, वहां मृदंग बजते हैं, वरतरुणियां-युवति स्त्रियां बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उसका गुणानुवाद करती हैं। वहां अभग्नसेन उन साधनों से सांसारिक मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-ततेणं से विजए चोरसेणावती अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। ततेणं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे 1. पेसणकारिया-इस पद के तीन अर्थ पाए जाते हैं। यदि इस की छाया "प्रेषणकारिका" की जाए तो इस का अर्थ-संदेशवाहिका-दूती होता है। और यदि इसकी छाया "पेषणकारिका" की जाए तो-चन्दन घिसने वाली दासी, या "गेहूं आदि धान्य पीसने वाली" यह अर्थ होगा। 384 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध