________________ स्वादिम को। उवक्खडावेति-तैयार कराता है, तथा। मित्तनाति-मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को। आमंतेति-आमंत्रित करता है। जाव'-यावत्। तस्सेव-उसी। मित्तनाति-मित्र और ज्ञाति जनों के। पुरओ-सामने। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगा। जम्हा णं-जिस कारण। अम्हं-हमारे। इमंसिइस। दारगंसि-बालक के। गब्भगयंसि समाणंसि-गर्भ में आने पर / इमे-यह / एयारूवे-इस प्रकार का। दोहले-दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ / पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ और वह सब तरह से अभग्न रहा। तम्हा णं-इसलिए। अम्हं-हमारा। दारए-बालक। अभग्गसेणे-अभग्नसेन। नामेणं-इस नाम से। होउ-हो अर्थात् इस बालक का "अभग्नसेन" यह नाम रखा जाता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / अभग्गसेणेअभग्नसेन / कुमारे-कुमार। पंचधाई. जाव-५ धायमाताओं यावत् अर्थात् क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली, मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली, मंडनधात्री-अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री-खेल खिलाने वाली और अंकधात्री-गोद में रखने वाली, इन पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ वह / परिवड्ढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगा। मूलार्थ-विजय नामक चोरसेनापति ने उस बालक का दश दिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थितिपतित-कुलक्रमागत उत्सव-विशेष मनाया। ग्यारहवें दिन विपुल अशनादि सामग्री का संग्रह किया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को आमंत्रित किया और उन्हें सत्कार-पूर्वक जिमाया। तत्पश्चात् यावत् उनके समक्ष कहने लगा कि- भद्र पुरुषो ! जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इस की माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था (जिस का वर्णन पीछे कर दिया गया है)। उस को भग्न नहीं होने दिया गया, तात्पर्य यह है कि इस बालक की माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ था, वह अभग्न रहा अर्थात् निर्विघ्नता से पूरा कर दिया गया। इसलिए इस बालक का "अभग्नसेन"यह नामकरण किया जाता है। तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक क्षीरधात्री पान-पानी आदि पेय पदार्थ खादिम-आम सेब आदि और मिठाई आदि पदार्थ तथा स्वादिम-पान सुपारी आदि पदार्थों का आस्वादन (थोडा सा खाना और बहत सा छोड देना, इक्ष खण्ड गन्ने-की भांति). विस्वादन (बहत खाना और थोड़ा छोड़ना, जैसे खजूर आदि) परिभोग (जिस में सर्वांश खाने के काम आए, जैसे रोटी आदि) और परिभाजन (एक दूसरे को देना) करता हुआ विहरण करने लगा। भोजन करने के अनन्तर यथोचित स्थान पर आया और आकर आचान्त-आचमन (शुद्ध जल के द्वारा मुखादि की शुद्धि) किया, चोक्ष-मुखगत लेपादि को दूर करके शुद्धि की, इसीलिए परमशुद्ध हुआ वह विजय चोरसेनापति उन मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का बहुत से पुष्पों, वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों-आभूषणों के द्वारा सत्कार एवं सम्मान करता है, तदनन्तर उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि लोगों के सामने इस प्रकार कहता है। (1) "-पंचधाई जाव परिवडढति-"यहां पठित "-जाव-यावत-"पद से" -परिग्गहिते तंजहा-खीरधातीए मज्जण.-" से ले कर "-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [379