________________ हे सुभगे ! तुम उदास हुई आर्तध्यान क्यों कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा कि स्वामिन् ! मुझे गर्भ धारण किए हुए तीन मास हो चुके हैं, अब मुझे यह (पूर्वोक्त) दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ ) उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्ण न होने पर, कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से रहित हुई यावत् मैं आर्तध्यान कर रही हूं। तब विजय चोरसेनापति अपनी स्कन्दश्री भार्या के पास से यह कथन सुन और उस पर विचार कर स्कन्दश्री भार्या के प्रति इस प्रकार कहने लगा कि-हे प्रिये ! तुम इस दोहद की यथारुचि पूर्ति कर सकती हो और इसके लिए कोई चिन्ता मत करो।। पति के इस वचन को सुन कर स्कन्दश्री को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह हर्षातिरेक से अपनी सहचरियों तथा अन्य चोरमहिलाओं को साथ ले स्नानादि से निवृत्त हो, सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो कर, विपुल अशन, पानादि तथा सुरा आदि का आस्वादन, विस्वादन आदि करने लगी। इस प्रकार सब के साथ भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर पुरुषवेष से युक्त हो तथा दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण कर के यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। तदनन्तर वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, संमानित होने, विनीत होने, व्युच्छिन्न-अनुबन्ध-(निरन्तर इच्छा-आसक्ति) रहित अथच सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। तत्पश्चात् उस चोरसेनापत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। टीका-किसी दिन चोरसेनापति विजय जब घर में आया तो उसने अपनी भार्या स्कन्दश्री को किसी और ही रूप में देखा, वह अत्यन्त कृश हो रही है, उस का मुखकमल मुरझा गया है, शरीर का रंग पीला पड़ गया है और चेहरा कान्तिशून्य हो गया है। तथा वह उसे चिन्ताग्रस्त मन से आर्तध्यान करती हुई दिखाई दी। स्कन्दश्री की इस अवस्था को देख कर विजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बड़े अधीर मन से उसकी इस दशा का कारण पूछा और कहा कि प्रिये ! तुम्हारी ऐसी शोचनीय दशा क्यों हुई ? क्या किसी ने तुम्हें अनुचित वचन कहा है ? अथवा तुम किसी रोगविशेष से अभिभूत हो रही हो ? तुम्हारे मुखकमल की वह शोभा, न जाने कहां चली गई ! तुम्हारा रूपलावण्य सब लुप्त सा हो गया है। प्रिये ! कहो, ऐसा क्यों हुआ? क्या कोई आन्तरिक कष्ट पतिदेव के इस संभाषण से थोड़ी सी आश्वस्त हुई स्कन्दश्री बोली, प्राणनाथ ! मुझे 374 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध