________________ भाग्यशालिनी हैं और उन्होंने ही अपने मातृजीवन को सफल किया है, क्या ही अच्छा हो यदि मुझे भी ऐसा करने का अवसर मिले और मैं भी अपने को भाग्यशालिनी समझू। विचार-परम्परा के अविश्रान्त स्रोत में प्रवाहित हुआ मानव प्राणी बहुत कुछ सोचता है और अनेक तरह की उधेड़बुन में लगा रहता है। कभी वह सोचता है कि मैं इस काम को पूरा कर लूं तो अच्छा है, कभी सोचता है कि मुझे अमुक पदार्थ मिल जाए तो ठीक है। यदि आरम्भ किया काम पूरा हो जाता है तो मन में प्रसन्नता होती है, उसके अपूर्ण रहने पर मन उदासीन हो जाता है। परन्तु सफलता और विफलता, हर्ष और विषाद तथा हानि और लाभ ये दोनों साथ-साथ ही रहते हैं। वीतरागता की प्राप्ति के बिना मानव में हर्ष, विषाद, हानि और लाभ जन्य क्षोभ बराबर बना रहता है। स्कन्दश्री भी एक मानव प्राणी है, उस में सांसारिक प्रलोभनों की मात्रा साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक है। इसलिए उस में हर्ष अथवा विषाद भी पर्याप्त है। उसके दोहद-इच्छित संकल्प की पूर्ति न होने से उस में विषाद की मात्रा बढ़ी और वह दिन प्रतिदिन सूखने लगी तथा दीर्घकालीन रोगों से व्याप्त होने की भान्ति उस की शारीरिक दशा चिन्ताजनक हो गई। उस का सारा समय आर्तध्यान में व्यतीत होने लगा। "जिमियभुत्तुत्तरागयाओ"-इस की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं... "जेमिता:-कृतभोजनाः, भुक्तोत्तरं-भोजनानन्तरं-आगता उचितस्थाने यास्ता तथा-" अर्थात् जिस ने भोजन कर लिया है, उसे जेमित कहते हैं। भोजन के पश्चात् को कहते हैं-भुक्तोत्तर। भोजन करने के अनंतर उचितस्थान में उपस्थित हुईं महिलाएं"जेमितभुक्तोत्तरागता'' कहलाती हैं। इस के अतिरिक्त “भरिएहिं फलिएहिं" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "भरिएहिं-हस्तपाशितैः, फलएहिं-१स्फटिकैः, निक्किट्ठाहि-कोषकादाकृष्टैः, असिहिं- खड्गैः, अंसागएहिं-स्कन्धदेशमागतैः-पृष्ठदेशे बन्धनात्, तोणेहि-शराधिभिः, सजीवेहि-सजीवै:-कोट्यारोपितप्रत्यञ्चैः, धणूहि-कोदण्डकैः, समुक्खित्तेहिं सरेहिं 1. वृत्तिकार को "फलएहिं" इस पाठ का "-स्फटिक (स्फटिक रत्न की कान्ति के समान कान्ति वाली तलवारें)-यह अर्थ अभिप्रेत है। परन्तु हैमशब्दानुशासन के "स्फटिके लः।८/१/१९७। स्फटिक टस्य लो भवति। फलिहो। और "निकषस्फटिकचिकुरे हः।८/१/१८६ / सूत्र से स्फटिक के ककार को हकारादेश हो जाता है, इस से स्फटिक का फलिह यह रूप बनता है। प्रस्तुत सूत्र में फलअ पाठ का आश्रयण है। इसीलिए हमने इसका फलक (ढाल) यह अर्थ किया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [369