________________ के अंडों को, घूकी ( उल्लू की मादा) के अंडों को, कबूतरी के अंडों को, टिटिभी (टिटिहरी) के अंडों को, बगुली के अंडों को, मोरनी के अंडों को और मुर्गी के अंडों को तथा और भी अनेक जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अंडों को लेकर बांस की पिटारियों में भरते थे, भर कर निर्णय नामक अंडवाणिज के पास आते थे, आकर उस अंडवाणिज को अंडों से भरी हुई वे पिटारियां दे देते थे। ____ तदनन्तर निर्णय नामक अंडवाणिज के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से काकी यावत् कुकड़ी (मुर्गी ) के अंडों तथा अन्य जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अण्डों को तवों पर, कड़ाहों पर, हांडों में और अंगारों पर तलते थे, भूनते थे तथा पकाते थे। तलते हुए, भूनते हुए, और पकाते हुए राजमार्ग के मध्यवर्ती आपणोंदुकानों पर अथवा-राजमार्ग की दुकानों के भीतर, अंडों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे। . तथा वह निर्णय नामक अंडवाणिज स्वयं भी अनेक काकी यावत् कुकड़ी के अंडों जो कि पकाए हुए, तले हुए और भूने हुए थे, के साथ सुरा आदि पंचविध मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ, जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर वह निर्णय नामक अंडवाणिज इस प्रकार के पाप कर्मों के करने वाला, इस प्रकार के कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन कर्मों का विद्या-विज्ञान रखने वाला, और इन्हीं कर्मों को अपना आचरण बना कर अत्यधिक पाप कर्मों को उपार्जित कर के एक सहस्त्र वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास-मृत्यु के समय में काल करके तीसरी पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम स्थिति वाले नारकों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ। . टीका-प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि गौतम ! भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक नगर था, जो व्यापारियों की दृष्टि से, शिल्पियों की दृष्टि से एवं आर्थिक दृष्टि से पूर्ण वैभवशाली होने के साथ-साथ काफी चहल-पहल वाला था। उस में उदित नरेश का राज्य था, जो कि महान् प्रतापी था। उस नगर में निर्णय नाम का एक अंडवाणिज-अंडों का व्यापारी रहता था, जो कि काफी धनी और अपनी जाति में सर्व प्रकार से प्रतिष्ठित माना जाता था। परन्तु धर्म-सम्बन्धी कार्यों में निर्णय बड़ा पराङ्मुख रहता था। उस के विचार सावध प्रवृत्ति की ओर अधिक झुके हुए थे। अनाथ, मूक-प्राणियों का वध करने में प्रवृत्त होने से उसके विचार अधिक क्रूर हो गए थे। उस के अन्दर सांसारिक प्रलोभन बेहद बढ़ा हुआ था। इसीलिए उस का प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [361