________________ मूल-सेणं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसी? किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं जाव विहरति ? छाया-स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? किंनामको वा किंगोत्रको वा कतरस्मिन् ग्रामे वा नगरे वा किं वा दत्त्वा किं वा भुक्त्वा किं वा समाचर्य केषां वा पुरा पुराणानां यावत् विहरति? पदार्थ-भंते ! भगवन् ! से णं पुरिसे-वह पुरुष मृगापुत्र / पुव्वभवे-पुर्वभव में। के आसी?कौन था ? किंनामए वा-किस नाम वाला तथा। किंगोत्तए-किस गोत्र वाला था ? कयरंसि गामंसि वाकिस ग्राम अथवा। नगरंसि वा-नगर में रहता था ? किं वा दच्चा-क्या दे कर। किं वा भोच्चा-क्या भोगकर। किं वा समायरित्ता-क्या आचरण कर। केसिं वा-पुरा-किन पूर्व / पोराणाणं-प्राचीन कर्मों का फल भोगता हुआ। जाव-यावत्। विहरति-इस प्रकार निकृष्ट जीवन व्यतीत कर रहा हैं ? मूलार्थ-भदन्त ! वह पुरुष[ मृगापुत्र] पूर्वभव में क्या था ? किस नाम का था ? किस गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा किस नगर में रहता था ? तथा क्या दे कर, क्या भोग कर, किन-किन कर्मों का आचरण कर और किन-किन पुरातन कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है ? टीका-प्रभो! यह बालक पूर्वभव में कौन था ? किस नाम तथा गोत्र से प्रसिद्ध था? एवं किस ग्राम या नगर में निवास करता था ? क्या दान देकर, किन भोगों का उपभोग कर, क्या समाचरण कर, तथा कौन से पुरातन पापकर्मों के प्रभाव से वह इस प्रकार की नरकतुल्य यातनाओं का अनुभव कर रहा है ? यह था मृगापुत्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी का निवेदन, जिसे ऊपर के सूत्रगत शब्दों में सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है। टीकाकार महानुभाव ने नाम और गोत्र शब्द में अर्थगत भिन्नता को "-नाम यदृच्छिकमभिधानं, गोत्रं तु यथार्थकुलम्-" इन.पदों से अभिव्यक्त किया है। अर्थात् नाम यादृच्छिक होता है, इच्छानुसारी होता है। उस में अर्थ की प्रधानता नहीं भी होती, जैसे किसी का नाम है-शान्ति / शान्ति नाम वाला व्यक्ति अवश्य ही शान्ति (सहिष्णुता) का धनी होगा, यह आवश्यक नहीं है। परन्तु गोत्र में ऐसी बात नहीं होती, गोत्र पद सार्थक होता है, किसी अर्थविशेष का द्योतक होता है, जैसे-'गौतम' एक गोत्र-कुल (वंश) का नाम है। गौतम शब्द किसी (पूर्वज) प्रधान-पुरुषविशेष का संसूचक है, अतएव वह सार्थक है। "पोराणाणां जाव विहरति" यहां पठित "जाव-यावत्" पद-"दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलविसेसं पच्चणुब्भवमाणे-" इन [ प्रथम श्रुतस्कंध 156 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय