________________ शान्ति के उपायों का नियोजन ही अभिप्रेत है, फिर वह क्रमपूर्वक हो या क्रमविकल / अन्यथा अवदाहन तथा अवस्नान के अनन्तर अनुवासनादि बस्तिकर्म का सूत्रकार उल्लेख न करते। (५)विरेचन-अधोद्वार से मल का निकालना ही विरेचन है। चरक संहिता कल्पस्थान में विरेचन शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है। "अधोभागं विरेचनसंज्ञकमुभयं वा शरीरमल-विरेचनाद् विरेचनशब्दं लभते" अर्थात्- अधो भाग से दोषों का निकालना विरेचन कहलाता है, अथवा शरीर के मल का रेचन करने से ऊर्ध्वविरेचन की वमन संज्ञा है और अधोविरेचन को विरेचन कहा है। संक्षेप से कहें तो मुख द्वारा मलादि का अपसरण वमन है, और गुदा के द्वारा मल निस्सारण की विरेचन संज्ञा है। (6)1 स्वेदन-स्वेदन का सामान्य अर्थ पसीना देना है। (7) अवदाहन-गर्म लोहे की कोश आदि से चर्म (फोड़े, फुन्सी आदि) पर दागने को अवदाहन कहते हैं। बहुत सी ऐसी व्याधियां हैं जिनकी दागना ही चिकित्सा है। चरकादि ग्रन्थों में इस का कोई विशेष उल्लेख देखने में नहीं आता। (८)अवस्नान-शरीर की चिकनाहट को दूर करने वाले अनेकविध द्रव्यों से मिश्रित तथा संस्कारित जल से स्नान कराने को अवस्नान कहते हैं। (9,10,11) अनुवासना-बस्तिकर्म-निरुह-शार्ङ्गधर संहिता [अ.५] में बस्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है बस्तिर्द्विधानुवासाख्यो-निरूहश्च ततः परम्। . बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः॥१॥ अर्थात् बस्ति दो प्रकार की होती है-१-अनुवासना बस्ति, २-निरूह बस्ति। इस विधान में यथा नियम निर्धारित औषधियों का बस्ति (चर्म निर्मित कोथली) द्वारा प्रयोग किया जाता है इसलिए इसे बस्ति कहते हैं। तथा सुश्रुत-संहिता में अनुवासना तथा निरुह इन दोनों की निरुक्ति इस प्रकार की है "-अनुवसन्नपि न दुष्यति, अनुदिवसं वा दीयते इत्यनुवासनाबस्ति:-" [जो अनुवास-बासी हो कर भी दूषित न हो, अथवा जो प्रतिदिन दी जावे उसे अनुवासना-बस्ति कहते हैं]-"दोष-निर्हरणाच्छरीररोहणाद्वा निरुहः"-[दोषों का निर्हरण नाश कराने के 1. मूल में उल्लेख किए गए "सेयण" के सेचन और स्वेदन ये दो प्रतिरूप होते हैं। यहां पर सेचन की अपेक्षा स्वेदन का ग्रहण करना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है। कारण कि चिकित्सा विधि में स्वेदन का ही अधिकार है। सेचन नाम की कोई चिकित्सा नहीं। और यदि "सेचन" प्रतिरूप के लिए ही आग्रह हो तो सेचन का अर्थ जलसिंचन ही हो सकता है। उसका उपयोग तो प्रायः मूर्छा-रोग में किया जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [181