________________ कोई अपनी मर्जी से कितना ही ऊपर क्यों न उड़ जाए, तब भी अन्त में उसे पृथ्वी पर ही गिरना पड़ता है या उसी की ओर आना पड़ता है, यह क्यों होता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। (49) अफल-अफलन-कला-वे चीजें वास्तव में फलवान् होने की योग्यता रखते हुए भी फलती नहीं हैं, मुख्यतः दो भागों में विभाजित की जाती हैं-एक तो स्थावर जैसे वृक्ष, लताएं आदि और दूसरी जंगम वस्तुएं, जो चलती फिरती हैं, जैसे मनुष्य या पशु आदि। कोई वृक्ष या लता फलती नहीं है तो क्या कारण है, कौन सा खाद उसे पहुंचाया जाए, तो वह फिर से फलवान् हो जाए या उस में कोई कीड़ा आदि न लग पाए, इसी प्रकार पुरुषों के सन्तान नहीं होती है, तो इस का मूल कारण क्या है, क्या पुरुष की जननेन्द्रिय किसी दोष से दूषित है, या पुरुष का वीर्य सन्तानोत्पादन करने में अशक्त है, अथवा स्त्री का ही रज किसी विशेष दोष से सन्तानोत्पादन करने में असमर्थ है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता (५०)धार-बन्धन-कला-छुरे, भाले, तलवार आदि शस्त्रों की पैनी से पैनी धार को मन्त्र, तन्त्र या आत्मबल आदि किसी अन्य साधन द्वारा निष्फल बना कर उस पर दौड़तेदौड़ते चले जाना या इन शस्त्रों के द्वारा किसी पर प्रहार तो करना पर उसे तनिक भी चोट न पहुंचने देना अथवा बहते हुए पानी की धार को वहीं की वहीं रोक देना अथवा धारा को दो भागों में विभक्त करके मध्य में से मार्ग निकाल लेना, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला द्वारा दी जाती है। (५१)चित्र-कला-लेखक, कवि जिन बातों को लिख कर बड़े-बड़े विशाल ग्रन्थ तैयार कर देते हैं और पढ़े लिखे लोगों का मनोरञ्जन करते हैं एवं जीवन का पाठ पढ़ाते हैं, परन्तु उन सभी लम्बी, चौड़ी बातों को एक चित्रकार चित्र के द्वारा संसार के सन्मुख उपस्थित कर देता है, जिस को देख कर अनपढ़ लोग मनोरञ्जन कर लेते हैं एवं जिस से वे अपने को शिक्षित भी कर पाते हैं। इस कला में चित्र-निर्माण के सभी विकल्पों को सिखाया जाता है। (52) ग्रामवसावन-कला-ग्राम कैसे और कहां बसाए जाते हैं, पहाड़ों के ऊपर मरूभूमि में और दलदलों के पास ग्राम क्यों नहीं बसाए जाते, छोटी-छोटी पहाड़ियों और धारों की तलाइयां और मैदानों की भूमियां ही बस्तियों के लिए क्यों चुनी जाती हैं, कौन सी बस्ती बड़ी और कौन छोटी बन जाती है, इत्यादि बातों का बोध इस कला के द्वारा कराया जाता है। (53) कटक-उतारण-कला-छावनियां कहां डाली जानी चाहिएं, उन की रचना 234 ] 234 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय प्रथम श्रुतस्कंध