________________ अह तइयं अज्झयणं अथ तृतीय अध्याय संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन का अभिलाषी बना हुआ है, इसीलिए संसार की अन्य अनेकों वस्तुएं प्रिय होने पर भी उसे जीवन सब से अधिक प्रिय होता है। जीवन को सुखी बनाना उस का सब से बड़ा लक्ष्य है, जिस की पूर्ति के लिए वह अनेकानेक प्रयास भी करता रहता है। मानव प्राणी को सुख की जितनी चाह है उस से ज्यादा दुःख से उसे घृणा है। दुःख का नाम सुनते ही वह तिलमिला उठता है। इस से (दुःख से) बचने के लिए वह बड़ी से बड़ी कठोर साधना करने के लिए भी सन्नद्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि सुखों को प्राप्त करने और दुःखों से विमुक्त होने की कामना प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। इसीलिए विचारशील पुरुष दु:ख की साधन-सामग्री को अपनाने का कभी यत्न नहीं करते प्रत्युत सुख की साधनसामग्री को अपनाते हुए अधिक से अधिक आत्मविकास की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। संसार में दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं, एक तो वे हैं-जो सभी सुखी रहना चाहते हैं, दुःखं कोई नहीं चाहता-इस सिद्धान्त को हृदय में रखते हुए किसी को कभी दुःख देने की चेष्टा नहीं करते और जहां तक बनता है वे अपने सुखों का बलिदान करके भी दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा "-सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न दुःख पावे-" इस पवित्र भावना से अपनी आत्मा को भावित करते रहते हैं। इस के विपरीत दूसरे वे प्राणी हैं, जिन्हें मात्र अपने ही सुख की चिन्ता रहती है, और उस की पूर्ति के लिए किसी प्राणी के प्राण यदि विनष्ट होते हों तो उन का उसे तनिक ख्याल भी नहीं आने पाता, ऐसे प्राणी अपने स्वार्थ के लिए किसी भी जघन्य आचरण से पीछे नहीं हटते, और वे पर पीड़ा और पर-दुःख को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं, साथ में वे बुरे कर्म का फल बुरा होता है और वह अवश्य भोगना पड़ता है, इस पवित्र सिद्धान्त को भी अपने मस्तिष्क में से निकाल देते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [331