________________ "छिन्नभिण्णबाहिराहियाणं-छिन्ना हस्तादिषु भिन्नाः नासिकादिषु "-बाहिराहि य-" त्ति नगराद् बहिष्कृताः अथवा बाह्याः स्वाचार-परिभ्रंशाद् विशिष्टजनबहिर्वर्तिनः, "अहिय"त्ति अहिता ग्रामादिदाहकत्वाद्, अत: द्वन्द्वस्तेषाम्-" अर्थात् इस समस्त पद में तीन अथवा चार पद हैं। जैसे कि-(१) छिन्न (2) भिन्न (3) बहिराहित अथवा बाह्य और (4) अहित। छिन्न शब्द से उन व्यक्तियों का ग्रहण होता है, जिन के हाथ आदि कटे हुए हैं। भिन्न शब्द-जिन की नासिका आदि का भेदन हो चुका है-इस अर्थ का बोधक है। नगर से बहिष्कृत-बाहर निकाले हुए को बहिराहित कहते हैं। आचार-भ्रष्ट होने के कारण जो शिष्ट मण्डली-उत्तम जनों से बहिर्वर्ती-बहिष्कृत हैं, वे बाह्य कहलाते हैं। अहितकारी अर्थात् ग्रामादि को जला कर जनता को दु:ख देने वाले मनुष्य अहित शब्द से अभिव्यक्त किए गए "कुडंग-कूटङ्क इव कुटंक:-वंशगहनमिव तेषामावरकः-गोपक:-" अर्थात् बांसों के वन का नाम कुटङ्क है। कुटङ्क प्रायः गहन (दुर्गम) होता है, उस में जल्दी-जल्दी किसी का प्रवेश नहीं हो पाता। चोरी करने वाले और गांठे कतरने वाले लोग इसीलिए ऐसे स्थानों में अपने को छिपाते हैं, जिस से अधिकारी लोगों का वहां से उन्हें पकड़ना कठिन हो जाता ___ सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति को कुटंक कहां है। इस का अभिप्राय यही है कि जिस तरह बांसों का वन प्रच्छन्न रहने वालों के लिए उपयुक्त एवं निरापद स्थान होता है, वैसे ही चोरसेनापति परस्त्रीलम्पट और ग्रन्थिभेदक इत्यादि लोगों के लिए बड़ा सुरक्षित एवं निरापद स्थान था। तात्पर्य यह है कि वहां उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती थी। अपने को वहां वे निर्भय पाते थे। "गामघातेहि"-इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त की जाती है (1) ग्रामघात-घात का अर्थ है नाश करना। ग्रामों-गांवों का घात ग्रामघात कहलाता है। तात्पर्य यह है कि ग्रामीण लोगों की चल (जो वस्तु इधर-उधर ले जाई जा सके, जैसे चान्दी, सोना रुपया तथा वस्त्रादि) और अचल-(जो इधर-उधर न की जा सके, जैसेमकानादि) सम्पत्ति को विजयसेन चोरसेनापति हानि पहुंचाया करता था। एवं वहां के लोगों को मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी तरह की पीड़ा और व्यथा पहुंचाता था। (2) नगरघात-नगरों का घात-नाश नगरघात कहलाता है, इस का विवेचन ग्रामघात की भान्ति जान लेना चाहिए। (3) गोग्रहण-गो शब्द गो आदि सभी पशुओं का परिचायक है। गो का ग्रहण 344 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध