________________ (1) नि:स्थान-स्थान से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उन के घर आदि स्थानों से निकाल देता था। (2) निर्धन-धन से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति छीन कर धन से खाली कर देता था। (3) निष्कण-कण से रहित / कण का अर्थ है-गेहूं, चने आदि धान्यों के दाने। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों का समस्त धन छीन कर उन के पास दाना तक भी नहीं छोड़ता था। "कप्पायं"-पद की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि ने-कल्पः उचितो य आयःप्रजातो द्रव्यलाभः सकल्पायोऽतस्तम्-इन शब्दों के द्वारा की है। अर्थात् कल्प का अर्थ हैउचित। और आय शब्द लाभ-आमदनी का बोधक है। तात्पर्य यह है कि राजा प्रजा से जो यथोचित कर-महसूल आदि के रूप में द्रव्य-धन ग्रहण करता है, उसे कल्पाय कहते हैं। विजयसेन चोरसेनापति का इतना साहस बढ़ चुका था कि वह लोगों से स्वयं ही कर-महसूल ग्रहण करने लग गया था। सारांश यह है कि-प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट वर्णित है कि विजयसेन चोरसेनापति प्रजा को विपत्तिग्रस्त करने में किसी प्रकार की ढील नहीं कर रहा था। किसी को भेदनीति से, किसी को दण्डनीति से संकट में डाल रहा था, तथा किसी को स्थान-भ्रष्ट कर, किसी की गाय, भैंस आदि सम्पत्ति चुरा कर पीड़ित कर रहा था। जहां उस का प्रजा के साथ इतना क्रूर एवं निर्दय व्यवहार था, वहां वह महाबल नरेश को भी चोट पहुंचाने में पीछे नहीं हट रहा था। अनेकों बार राजा को लूटा, उसके बदले प्रजा से स्वयं कर वसूला। यही उस के जीवन का कर्तव्य बना हुआ था। विजयसेन चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की बड़ी सुन्दरी भार्या थी और दोनों को सांसारिक आनन्द पहुंचाने वाला अभग्नसेन नाम का एक पुत्र भी उसके घर में उद्योत करने वाला विद्यमान था। वह जैसा शरीर से हृष्ट एवं पुष्ट था, वैसे वह विद्यासंपन्न भी था। "-अहीण.-" यहां दिए गए बिन्दु से "-पडिपुण्ण पंचिंदियसरीरा, लक्खणवंजण-गुणोववेया-" ले लेकर "-पियदंसणा सुरूवा-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे में की जा चुकी है। "विण्णाय-परिणयमित्ते-" इस पद की "-विज्ञातं-विज्ञानमस्यास्तीति विज्ञातः, परिणत एव परिणतमात्रः-परिणतिमापन्नः, विज्ञातश्चासौ परिणतमात्रः-इति विज्ञातपरिणतमात्रः। परिणतिः-अवस्थाविशेष इति यावत्-" ऐसी व्याख्या करने पर 346 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध