________________ करता था कि-हन-इसे मारो, छिन्द-इस के टुकड़े-टुकड़े कर दो, भिन्द-इसे कुन्त (भाला) से भेदन करो-फाड़ डालो, इस प्रकार दूसरों को प्रेरणा करने के साथ-साथ वह चोरसेनापति स्वयं भी लोगों के नाक और कान आदि का विकर्तक-काटने वाला बन रहा था। (10) लोहित-पाणी-प्राणियों के अंगोपांगों के काटने से जिसके हाथ खून से रंगे रहते थे। तात्पर्य यह है कि चोरसेनापति का इतना अधिक हिंसाप्रिय जीवन था कि वह प्रायः किसी न किसी प्राणी का जीवन विनष्ट करता ही रहता था। __ (11) बहुनगरनिर्गतयशा-अनेकों नगरों में जिस का यश-प्रसिद्धि फैला हुआ था। अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति अपने चोरी आदि कुकर्मों में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उस के नाम से उस प्रान्त का बच्चा-बच्चा परिचित था। उस प्रान्त में उस के नाम की धाक मची हुई थी। (12) शूर-वीर का नाम है। वीरता अच्छे कर्मों की भी होती है और बुरे कर्मों की भी। परन्तु विजयसेन चोरसेनापति अपनी वीरता का प्रयोग प्रायः लोगों को लूटने और दुःख देने में ही किया करता था। (13) दृढ़-प्रहार-जिस का प्रहार (चोट पहुंचाना) दृढ़ता-पूर्ण हो, अर्थात् जो दृढ़ता से प्रहार करने वाला हो, उसे दृढ़प्रहार कहते हैं। -: (14) साहसिक-वह मानसिक शक्ति जिस के द्वारा मनुष्य दृढ़ता-पूर्वक विपत्ति . आदि का सामना करता है, उसे साहस कहते हैं / साहस का ही दूसरा नाम हिम्मत है। साहस से सम्पन्न व्यक्ति साहसिक कहलाता है। (१५)शब्दवेधी-उस व्यक्ति का नाम है जो बिना देखे हुए केवल शब्द से दिशा का ज्ञान प्राप्त कर के किसी भी वस्तु को बींधता हो। (१६)असियष्टिप्रथममल्ल-विजयसेन चोरसेनापति असि-तलवार के और यष्टिलाठी के चलाने में प्रथममल्ल था। प्रथममल्ल का अर्थ होता है-प्रधान योद्धा। - आचार्य अभयदेव सूरि के मत में १"असियष्टि" एक पद है और वे इसका अर्थ खड्गलता-तलवार करते हैं। ... "आहेवच्चं जाव विहरति"-यहां-पठित जाव-यावत्-पद से "पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आधिपत्य आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है 1. "असिलट्टि पढममल्ले"-त्ति असियष्टिः-खड्गलता, तस्यां प्रथम: आद्यः प्रधान इत्यर्थः, मल्लोयोद्धा यः स तथेति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [339