________________ इस के अतिरिक्त पांच धायमाताओं (वह स्त्री जो किसी दूसरे के बालक को दूध पिलाने और उसं का पालन-पोषण करने के लिए नियुक्त हो उसे धायमाता कहते हैं) के द्वारा उस उज्झितक कुमारं के पालनपोषण का प्रबन्ध किया जाना नवजात शिशु के प्रति अधिकाधिक ममत्व एवं माता-पिता का सम्पन्न होना सूचित करता है। बालक को दूध पिलाने वाली धायमाता क्षीरधात्री कहलाती है। स्नान कराने वाली धायमाता मज्जनधात्री, वस्त्राभूषण पहनाने वाली मंडन धात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीड़ापनधात्री और गोद में लेकर खिलाने वाली धायमाता अंकधात्री कही जाती है। इन पांचों धायमाताओं द्वारा, वायु तथा आघात से रहित पर्वतीय कन्दरा में विकसित चम्पक वृक्ष की भांति सुरक्षित वह उज्झितक बालक दृढ़प्रतिज्ञ की तरह सुरक्षित होकर सानन्द वृद्धि को प्राप्त कर रहा था। दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालीन जीवन चर्या का वर्णन औपपातिक सूत्र अथवा राजप्रश्नीय सूत्र से जान लेना चाहिए। उक्त सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालीन जीवनचर्या का सांगोपांग वर्णन किया गया है। "-दढपतिण्णे जाव निव्वाय-" यहां पठित "-दढपतिण्णे-" पद से दृढ़प्रतिज्ञ का स्मरण कराना ही सूत्रकार को अभिमत है। दृढप्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवन-परिचय पीछे दिया जा चुका है। तथा "-जाव-यावत्-" पद से श्री ज्ञातासूत्रीय मेघकुमार नामक प्रथम अध्ययन का पाठ अभिमत है। जो कि निम्नोक्त है "-अन्नाहिं बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणी-वडभी-बब्बरी-बउसिजोणिय-पल्हवि-इसिणिया-चाधोरुगिणी-लासिया-लउसिय-दमिलि-सिंहलि-आरबिपुलिंदि-पक्कणि-बहलि-मुरुण्डि-सबरि-पारसीहिं णाणादेसीहि विदेसपरिमण्डियाहिं इंगिय-चिन्तिय-पत्थिय-वियाणाहिं सदेसणेवत्थगहियवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालवरिसधरकंचुइअमहयरग्गवंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं संहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिज्जमाणे चालिजमाणे उवलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिममिज्जमाणे-" इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है अन्य बहुत सी कुब्जा-कुबड़ी, चिलाती-किरात देश की रहने वाली, अथवा भील जाति से सम्बन्ध रखने वाली, वामनी-बौनी (जिस का कद छोटा हो), बड़भी-पीछे या आगे ' का अंग जिस का बाहर निकल आया हो अथवा जिस का पेट बड़ा हो कर आगे निकला हुआ हो वह स्त्री, बर्बरा-बर्बर देश में उत्पन्न स्त्री, बकुशा बकुशदेश में उत्पन्न स्त्री, यवनायवनदेश में उत्पन्न स्त्री, पल्हविका-पल्हवदेशोत्पन्न स्त्री, इसिनिका-इसिनदेशोत्पन्न स्त्री, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [293