________________ "-बोहिं.-" यहां दिए गए बिन्दु से "-बोहिं बुज्झिहिति, केवलबोहिं बुज्झित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइहिति। से णं भविस्सइ (अर्थात् बोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह गृहस्थावस्था को त्याग कर अनगार-धर्म में दीक्षित हो जाएगा-साधु बन जाएगा)-" यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना। और "-अणगारे-" यहां के बिन्दु से "भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कन्ते कालमासे कालं किच्चा" यहां तक का पाठ ग्रहण करना तथा "-सोहम्मे कप्पे०-" यहां के बिन्दु से "-देवत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेह-वासे जाइंकुलाइं भवन्ति अड्ढाइं-यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन में लिखा जा चुका है। "-जहा पढमे जाव अंतं-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से औपपातिक सूत्र के " -दित्ताइं वित्ताइं विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाणवाहणाइं-" से लेकर "-चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्व-दुक्खाणमंतं-" यहां तक के पाठ का परिचायक है। इस पाठ का अर्थ पाठक वहीं देख सकेंगे। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में भी जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणकमलों में यह निवेदन किया था कि भगवन् ! दुःख-विपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ तो मैंने समझ लिया है, अब आप कृपया. यह बताएं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दूसरे अध्ययन में क्या अर्थ कथन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने पूर्वोक्त उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन सुनाना आरम्भ किया था। उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन करने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी से कहा कि हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है / इस प्रकार मैं कहता हूं। तात्पर्य यह है कि भगवान् ने मुझे जिस प्रकार सुनाया है उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है। मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। इन्हीं भावों को सूचित करने के निमित्त सूत्रकार ने "निक्खेवो" इस पद का उल्लेख किया है। निक्षेप पद के कोषकारों के मत में उपसंहार और निगमन ऐसे दो अर्थ होते हैं। उपसंहार शब्द "-मिला देना, संयोग कर देना, समाप्ति भाषण या किसी पुस्तक का अन्तिम भाग जिस में उस का उद्देश्य अथवा परिणाम संक्षेप में बताया गया है-" इत्यादि प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [327