________________ वाला। (2) निह्नवन- पदार्थों को अदृश्य करने वाला अर्थात् जिसके प्रभाव से अपहृत धन वाले धनिक भी अपने अपहृत धन का प्रकाश नहीं कर पाते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे विद्या-प्रयोग और मन्त्रचूर्ण ऐसे अद्भुत थे कि जिन के द्वारा किसी का धन चुराया भी गया हो, फिर भी वे अपहृत धन वाले अपने धनापहार की बात दूसरों को नहीं कहते थे-" यह कहा जा सकता है। . (3) प्रस्नवन-दूसरों को प्रसन्न करने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्र-चूर्ण का उपयोग करता वे झटिति अपने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे। (4) वशीकरण-वश में कर लेने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्रचूर्ण का प्रयोग करता वे उस के वश में हो जाते थे। (5) आभियोगिक-अभियोग का अर्थ है-परवशता। जिन का प्रयोजन पारवश्य हो, उन्हें आभियोगिक कहा जाता है। अभियोग द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। जिस में औषध आदि का योग हो, उसे द्रव्याभियोग कहते हैं और जिस में विद्या एवं मन्त्र का योग हो वह भावाभियोग कहलाता है। "-जहा पढमे जाव पुढवी-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से प्रथम . अध्ययन गत "-उववजिहिति। तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए" से लेकर "-तेउ० आउ० पुढविकाएसु अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववजिहिति-" यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र के आगामी भव-सम्बन्धी जीवन का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार . उज्झितक के विषय में भी जान लेना चाहिए। अन्तर मात्र नाम का है, अर्थात् प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का नाम निर्दिष्ट हुआ है जब कि इस में उज्झितक कुमारं का। इस के अतिरिक्त जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की अन्तिम जीवनी का विकास-प्रधान कथन किया गया है अर्थात् जिन-जिन साधनों से श्रेष्ठी-पुत्र के भव में आकर मृगापुत्र ने अपने जीवन का उद्धार किया और वह देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो कर कर्म-रहित बना। ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार ने भी तथारूप स्थविरों के पास से सम्यक्त्व को प्राप्त कर के संयम के यथाविधि अनुष्ठान से कर्म-बन्धनों को तोड़ कर निर्वाण-पद को प्राप्त किया, इन सब बातों की सूचना प्रस्तुत अध्ययन में "बोहिं. अणगारे सोहम्मे कप्पे०" और "-जहा पढमें जाव-" इत्यादि पदों के संकेत में दे दी गई है, ताकि विस्तार न होने पाए और प्रतिपाद्यार्थ समझ में आ सके। 326 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध