________________ उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा, देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया, और मस्तक में त्रिवलिक-भृकुटि (तीन रेखाओं वाली तिउड़ी) चढ़ा कर अपने अनुचर पुरुषों द्वारा उज्झितक कुमार को पकड़वाया। पकड़वा कर यष्टि, मुष्टि (मुक्का), जानु और कूर्पर के प्रहारों से उसके शरीर को संभग्न, चूर्णित और मथित कर अवकोटक बन्धन से बान्धा और बान्ध कर पूर्वोक्त रीति से वध करने योग्य है ऐसी आज्ञा दी। हे गौतम ! इस प्रकार उज्झितक कुमार पूर्वकृत पुरातन कर्मों का यावत् फलानुभव करता हुआ विहरण करता है-समय यापन कर रहा है। टीका-जैसा कि ऊपर बताया गया है कि उज्झितक कुमार को उसके साहस के बल पर सफलता तो मिली, उसे कामध्वजा के सहवास में गुप्तरूप से रहने का यथेष्ट अवसर तो प्राप्त हो गया, परन्तु उसकी यह सफलता अचिरस्थायी होने के अतिरिक्त असह्य दुःख-मूलक ही निकली। उस का परिणाम नितान्त भयंकर हुआ। उज्झितक कुमार को इतना दुःख कहां से मिला ? कैसे मिला ? किसने दिया? और किस अपराध के कारण दिया ? इत्यादि भगवान गौतम के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के समाधानार्थ ही सूत्रकार ने प्रस्तुत कथासन्दर्भ का स्मरण किया है। जिस समय उज्झितक कुमार कामध्वजा के घर पर उसके साथ कामजन्य विषय-भोगों के उपभोग में निमग्न था उसी समय मित्रनरेश वहां आ जाते हैं और वहां उज्झितक कुमार को देखकर क्रोध से आग बबूला होकर उसे अनुचरों द्वारा पंकड़वा कर खूब मारते-पीटते हैं तथा 1. अद्वि-शब्द के अस्थि और यष्टि ऐसे दो संस्कृत रूप बनते हैं / अस्थि शब्द हड्डी का परिचायक है और यष्टि शब्द से लाठी का बोध होता है। यदि प्रस्तुत प्रकरण में अट्ठि-का अस्थि यह रूप ग्रहण किया जाए तो प्रश्न उपस्थित होता है कि-इस से क्या विवक्षित है ? अर्थात् यहां इस का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि प्रकृत प्रकरणानुसारी अस्थिसाध्य प्रहारादि कार्य तो मुष्टि (मुक्का), जानु (घुटना) और कूर्पर (कोहनी) द्वारा संभव हो ही जाते हैं, और सूत्रकार ने भी इन का ग्रहण किया है, फिर अस्थि शब्द का स्वतन्त्र ग्रहण करने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यदि अस्थि शब्द से अस्थि मात्र का ग्रहण अभिमत है तो मुष्टि आदि का ग्रहण क्यों ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान न होने के कारण हमारे विचारानुसार प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को अट्ठि पद से यष्टि यह अर्थ अभिमत प्रतीत होता है। प्रस्तुत में मार-पीट का प्रसंग होने से यह अर्थ संगत ठहरता है। व्याकरण से भी अट्ठि पद का यष्टि यह रूप निष्पन्न हो सकता है। सिद्धहैमशब्दानुशासन के अष्टमाध्याय के प्रथमपाद के 245 सूत्र से यष्टि के यकार का लोप हो जाने पर उसी अध्याय के द्वितीय पाद के 305 सूत्र से ष्ठ के स्थान पर ठकार, 360 सूत्र से टकार को द्वित्व और 361 सूत्र से प्रथम ठकार को टकार हो जाने से अट्ठि ऐसा प्रयोग बन जाता है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। 312 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध