________________ पर नियत हो जैसे कि नारियल आदि पदार्थ, उसकी गणिम संज्ञा है। जो वस्तु तुला-तराजू से तोल कर बेची जाए, जैसे घृत, शर्करा आदि पदार्थ, उसे धरिम कहते हैं। नाप कर बेचे जाने वाले पदार्थ कपड़ा फीता आदि मेय कहलाते हैं तथा जिन वस्तुओं का क्रय-विक्रय परीक्षाधीन हो उन्हें परिच्छेद्य कहते हैं। हीरा-पन्ना आदि रत्नों का परिच्छेद्य वस्तुओं में ग्रहण होता है। विजयमित्र सार्थवाह ने इन चतुर्विध पण्य-वस्तुओं को एक जहाज में भरा और उसे लेकर वह लवणसमुद्र में विदेश-गमनार्थ चल पड़ा। चलते-चलते रास्ते में जहाज उलट गया अर्थात् किसी पहाड़ी आदि से टकराकर अथवा तूफान आदि किसी भी कारण से छिन्न-भिन्न हो गया, उस में भरी हुई तमाम चीजें जलमग्न हो गईं और विजयमित्र सार्थवाह का भी वहीं प्राणान्त हो गया। कर्म की गति बड़ी विचित्र है। मानव सोचता तो कुछ और है मगर होता है कुछ और। जिस विजयमित्र ने लाभ प्राप्त करने की इच्छा से समुद्रयात्रा द्वारा विदेशगमन किया, वह समुद्र में सब कुछ विसर्जित कर देने के अतिरिक्त अपने जीवन को भी खो बैठा। इसी को दूसरे शब्दों में भावी-भाव कहते हैं, जो कि अमिट है। विजयमित्र सार्थवाह की इस दशा का समाचार जब वहां के ईश्वर, तलवर और माडम्बिक आदि लोगों को मिला तब वे मन में बड़े प्रसन्न हुए, उन के लिए तो यह मृत्यु समाचार नहीं था किन्तु उन की सौभाग्य-श्री ने उन्हें पुकारा हो ऐसा था। उन्होंने हस्तनिक्षेप और उस के अतिरिक्त अन्य सारभांड आदि को लेकर एकान्त में प्रस्थान कर दिया, सारांश यह है कि विजयमित्र की विभूति में से जो कुछ किसी के हाथ लगा वह लेकर चलता बना। ऐश्वर्य वाले को ईश्वर कहते हैं। राजा सन्तुष्ट होकर जिन्हें पट्टबन्ध देता है, वे राजा के. समान पट्टबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं अथवा नगर रक्षक कोतवाल को तलवर कहते हैं। जो बस्ती भिन्न-भिन्न हो उसे मडम्ब और उस के अधिकारी को माडम्बिक कहते हैं। जो कुटुम्ब का पालन पोषण करते हैं या जिन के द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है उन्हें कौटुम्बिक कहते हैं / इभ का अर्थ है हाथी। हाथी के बराबर द्रव्य जिस के पास हो उसे इभ्य कहते हैं। जो नगर के प्रधान व्यापारी हों उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप खरीदने और बेचने योग्य वस्तुओं को लेकर और लाभ के लिए 1. यह प्रकृति का नियम है कि जहाँ फूल होते हैं वहां कांटे भी होते हैं, इसी भांति जहाँ अच्छे विचारों के लोग होते हैं वहाँ गर्हित विचार रखने वाले लोगों की भी कमी नहीं होती। यही कारण है कि जब स्वार्थी लोगों ने विजयमित्र का परलोक-गमन तथा उस की सम्पत्ति का समुद्र में जलमग्न हो जाना सुना तो पर-दुःख से दुःखित होने के कर्त्तव्य से च्युत होते हुए उन लोगों ने अपना स्वार्थ साधना आरम्भ किया और जिस के जो हाथ लगा वह वही ले कर चल दिया। धिक्कार है ऐसी जघन्यतम लोभवृत्ति को। 298 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध