________________ तो जीवन में आनन्द रहता है और यदि अशुभ हों तो जीवन संकटों से व्याप्त हो जाता है। जिस ओर भी प्रवृत्ति होती है वहां हानि ही हानि के दर्शन होते हैं। शरीर में एक से अधिक रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं, फिर रोग भी ऐसे कि जिन का प्रतिकार अत्यन्त कठिन हो / अनुभवी वैद्य भी जिन की चिकित्सा न कर पाएं एवं वे भी हार मान जाएं, यह सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की ही महिमा है। समय की गति बड़ी विचित्र है। आज जो जीव सुखमय जीवन बिता रहा है, कल वही असह्य दुःखों का अनुभव करने लगता है। महारानी श्री भी समय के चक्र में फंसी हुई इसी नियम का उदाहरण बन रही थी। उसे योनिशूल ने आक्रमित कर लिया। योनिगत तीव्र वेदना से वह सदा व्यथित एवं व्याकुल रहने लगी। स्त्री की जननेन्द्रिय को योनि कहते हैं, तद्गत तीव्र वेदना को योनिशूल के नाम से उल्लेख किया जाता है। यह रोग कष्टसाध्य है, अगर इस का पूरी तरह से प्रतिकार न किया जाए तो स्त्री विषय- भोगों के योग्य नहीं रहती। इसीलिए विजयमित्र नरेश श्रीदेवी के साथ सांसारिक विषय-वासना की पूर्ति में असफल रहते। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रीदेवी विजयमित्र की कामवासना पूरी करने में असमर्थ हो गई थी। मानव पर मन का सब से अधिक नियन्त्रण है, उस की अनुकूलता जितनी हितकर है . उस से कहीं अधिक अनिष्ट करने वाली उस की प्रतिकूलता है। अनुकूल मन मानव को ऊंचे से ऊँचे स्थान पर जा बिठाता है, और प्रतिकूल हुआ वह मानव को नीचे से नीचे गर्त में गिरा देने से भी कभी नहीं चूकता। सारांश यह है कि मन की निरंकुशता अनेक प्रकार के अनिष्टों का सम्पादन करने वाली है। महाराज विजयमित्र का निरंकुश मन श्री देवी के द्वारा नियंत्रित न होने के कारण अशान्त, अथच व्यथित रहता था। काम-वासना की पूर्ति न होने से मित्रनरेश का मन नितान्त विकृत दशा को प्राप्त हो रहा था परन्तु उस का कर्तव्य उसे परस्त्री-सेवन से रोक रहा था। प्रतिक्षण कामवासना तथा कर्त्तव्य-परायणता में युद्ध हो रहा था। कभी कर्त्तव्य पर वासना विजय पाती और कभी वासना पर कर्त्तव्य को विजय लाभ होता। इस पारस्परिक संघर्ष में अन्ततोगत्वा कर्त्तव्य पर कामवासना को विजय-लाभ हुआ, उस के तीव्र प्रभाव के आगे कर्त्तव्य को पराजित-परास्त होना पड़ा। विजय नरेश के हृदय पर कर्तव्य के बदले कामवासना ने ही सर्वेसर्वा अधिकार प्राप्त कर लिया, उसके चित्त से स्वस्त्री-सन्तोष के विचार निकल गए, वहां अब परस्त्री या सामान्या स्त्री के उपभोग के अतिरिक्त और कोई लालसा नहीं रही और तदर्थ उस ने वहां पर रहने वाले कामध्वजा के कृपा-पात्र उज्झितक कुमार को निकलवाया और बाद में कामध्वजा को अपने अन्तःपुर में रख लिया। अब वह अपनी काम 306 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध