________________ इस भांति गौतम स्वामी ने राजमार्ग में सब तरह से सुसज्जित किए हुए घोड़ों को देखा। घोड़ों के विशेषणों की व्याख्या हाथियों के विशेषणों के तुल्य जान लेनी चाहिए, परन्तु जिन विशेषणों में अन्तरं है उन की व्याख्या निम्नोक्त है -आविद्धगुडे-"आविद्धगुडान्, आविद्धा परिहिता गुडा येषां ते तथा, अर्थात् उन घोड़ों को झूलें पहना रखीं हैं। .. ऊपर के हस्तिप्रकरण में गुडा का अर्थ झूल लिखा है जो कि हाथी का अलंकारिक उपकरण माना जाता है। परन्तु प्रस्तुत अश्वप्रकरण में भी गुड़ा का प्रयोग किया है जब कि यह घोड़ों का उपकरण नहीं है। व्यवहार भी इसका साक्षी नहीं है फिर भी यहां गुड़ा का प्रयोग किया गया है, ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर स्वयं वृत्तिकार देते हैं "-गुडा च यद्यपि हस्तिनां तनुत्राणे रूढा तथापि देशविशेषापेक्षया अश्वानामपि संभवति" अर्थात् गुड़ा (झूल) यद्यपि हस्तियों के तनुत्राण में प्रसिद्ध है, फिर भी देशविशेष की अपेक्षा से यह घोड़ों के लिए संभव हो सकता है। "-ओसारियपक्खरे-" अवसारितपक्खरान्, अवसारिता अवलम्बिताः पक्खराः तनुत्राणविशेषा येषां ते. तथा, तान्-'" अर्थात् पक्खर नामक तनुत्राण-कवच लटक रहे हैं, तात्पर्य यह है कि उन घोड़ों को शरीर की रक्षा करने वाले पक्खर नामक कवच धारण करा रखे हैं। -"-उत्तरकंचुइय-ओचूलमुहचंडाधरचामरथासक-परिमंडियकडिए-" उत्तरकञ्चुकित-अवचूलक-मुखचण्डाधर-चामर-स्थासक-परिमण्डितकटिकान्, उत्तरकञ्चुकः तनुत्राणविशेष एव येषामस्ति ते तथा, तथाऽवचूलकैर्मुखं चण्डाधरं-रौद्राधरौष्ठं येषां ते तथातथा चामरैः स्थासकैश्च दर्पणैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा-"अर्थात् उत्तरकंचुक एक शरीर रक्षक उपकरणविशेष का नाम है, इस को वे घोड़े धारण किए हुए हैं। अवचूल कहते हैं-घोड़े के मुख में दी जाने वाली वल्गा लगाम को। उन घोड़ों के मुख लगामों से युक्त हैं इसलिए उनके अधरोष्ठ क्रोधपूर्ण एवं भयानक दिखाई देते हैं। और उन घोड़ों के कटि भाग चामरों (चामरचमरी गाय के बालों से निर्मित होता है) और दर्पणों से अलंकृत हैं। "-आरूढ-अस्सारोहे-" आरूढाश्वारोहान्, आरूढाः अश्वारोहाः येषु-" अर्थात् उन घोड़ों पर घुड़सवार आरूढ़ हैं-बैठे हुए हैं। तदनन्तर गौतम स्वामी ने नाना प्रकार के मनुष्यों को देखा। वे भी हर प्रकार से सन्नद्ध, बद्ध हो रहे हैं। पुरुषों के विशेषणों की व्याख्या निम्नोक्त है "-सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय कवए-" सन्नद्धबद्ध-वर्मिककवचान्, की व्याख्या राज प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [253