________________ यावत्। वसभाण य-वृषभों के। ऊहेहि य-ऊध-लेवा-वह थैली जिस में दूध भरा रहता है। थणेहि यस्तन / वसणेहि य-वृषण-अंडकोष। छिप्पाहि य-पूंछ / ककुहेहि य-ककुद-स्कन्ध का ऊपरी भाग। वहेहि य-स्कन्ध। कन्नेहि य-कर्ण। अच्छीहि य-नेत्र। नासाहि य-नासिका। जिव्हाहि य-जिव्हा। ओडेहि य-ओष्ठ। कंबले हि य-कम्बल-सास्ना-गाय के गले का चमड़ा। सोल्लेहि य-शूल्य-शूलाप्रोत मांस। तलितेहि य-तलित-तला हुआ। भज्जेहि य-भुना हुआ। परिसुक्केहि य-परिशुष्क-स्वतः सूखा हुआ। लावणिएहि य-लवण से संस्कृत मांस / सुरं च-सुरा। मधुं च-मधु-पुष्पनिष्पन्न-सुरा-विशेष / मेरगं च-मेरक-मद्य विशेष जो कि ताल फल से बनाई जाती है। जातिं च-मद्य विशेष जो कि जाति कुसुम के वर्ण के समान वर्ण वाली होती है। सीधुं च-सीधु-मद्य विशेष जो कि गुड़ और धातकी के मेल से निर्माण की जाती है। पसण्णं च-प्रसन्ना-मद्यविशेष जो कि द्राक्षा आदि से निष्पन्न होती है, इन सब का।आसाएमाणीओ-आस्वाद लेती हुईं। विसाएमाणीओ-विशेष आस्वाद लेती हुईं। परिभाएमाणीओदूसरों को देती हुईं। परिभुंजेमाणीओ-परिभोग करती हुई। दोहलं-दोहद-गर्भिणी स्त्री का मनोरथ, को। विणेति-पूर्ण करती हैं। तं जइ णं-सो यदि। अहमवि-मैं भी। बहूणं-अनेक / नगर-नागरिक। जावयावत्। विणेज्जामि-अपने दोहद को पूर्ण करूं। ति कट्ट-यह विचार कर / तंसि-उस। दोहलंसि-दोहद के।अविणिजमाणंसि-पूर्ण न होने से / सुक्खा-सूखने लगी। भुक्खा-बुभुक्षित के समान हो गई अर्थात् भोजन न करने से बल रहित हो कर भूखे व्यक्ति के समान दीखने लगी। निम्मंसा-मांस रहित अत्यन्त दुर्बल सी हो गई। उलुग्गा-रोगिणी। उलुग्गसरीरा-रोगी के समान शिथिल शरीर वाली। नित्तेया-निस्तेज तेज से रहित। दीणविमणवयणा-दीन तथा चिंतातुर मुख वाली। पंडुल्लइयमुही-जिस का मुख पीला पड़ गया है। ओमंथियनयणवयणकमला-जिस के नेत्र तथा मुख कमल मुरझा गया। जहोइयं- यथोचित। पुष्फ-वस्थगंधमल्लालंकारहारं-पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य-फूलों की गुंथी हुई माला, अलंकार-आभूषण और हार का। अपरि जमाणी-उपभोग न करने वाली। करयलमलिय व्व कमलमाला-करतल से मर्दित कमल-माला की तरह। ओहय०- कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित। जाव-यावत्। झियाति-चिन्ताग्रस्त हो रही है। इमं च णं-और इधर। भीमे कूडग्गाहे-वह भीम नामक कूटग्राह। जेणेव-जहां पर / उप्पला-उत्पला नाम की। कूडग्गाहिणी-कूटग्राहिणी-कूटग्राह की स्त्री थी। तेणेववहीं पर। उवा०२-आता है, आकर कर।ओहय० जाव-उसे सूखी हुई, उत्साह रहित यावत् किंकर्तव्यविमूढ एवं चिन्ताग्रस्त। पासति-देखता है। २त्ता-देख कर। एवं वयासी-उसे इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए !- हे भद्रे / तुम-तुम। किण्णं-क्यों। ओहयः-जाव-इस तरह सूखी हुई यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो? झियासि-आर्तध्यान में मग्न हो रही हो? तते णं-तदनन्तर / सा-वह / उप्पला भारिया-उत्पला भार्या-स्त्री। भीमं-भीम नामक। कूड-कूटग्राह से। एवं-इस प्रकार / वयासी-कहने लगी। देवाणुप्पिया!हे महानुभाव ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। ममं-मेरे को। तिण्हं-मासाणं-तीन मास के। बहुपडिपुण्णाणं-परिपूर्ण हो जाने पर। दोहले-यह दोहद / पाउब्भूते-उत्पन्न हुआ कि। धण्णाओ णं ४-धन्य हैं वे माताएं। जाओ णं-जो। बहूणं गो०-अनेक चतुष्पाद पशुओं के। ऊहेहि य०-ऊधस् आदि के, तथा। लावणिएहि य-लवणसंस्कृत मांस और। सुरं ५-सुरा आदि का। आसा० ४-आस्वादन करती हुई। दोहलं-दोहद। विणिंति-पूर्ण करती हैं। तते णं-तदनन्तर। देवाणुः !-हे महानुभाव! तंसि-उस। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [271