________________ जीवन व्यतीत करता है। तते णं-तदनन्तर / से गोत्तासे कूड-वह गोत्रास नामक कूटग्राह / एयकम्मे-इन कर्मों वाला। प्प०-इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला। वि०-इस विद्या को जानने वाला। स०एवंविध आचरण करने वाला। सुबहुं-अत्यन्त। पावं-पाप। कम्म-कर्म का। समज्जिणित्ता-उपार्जन कर। पंच वाससयाई-पांच सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु का / पालयित्ता-पालन कर अर्थात् उपभोग कर। अट्टदुहट्टोवगते-चिन्ताओं और दुःखों से पीड़ित होकर। कालमासे-कालमास-मरणावसर में। कालं किच्चा-काल करके। उक्कोसं-उत्कृष्ट। तिसागरो०-तीन सागरोपम स्थिति वाली। दोच्चाएदूसरी। पुढवीए-नरक में। णेरइयत्ताए-नारकरूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-तत् पश्चात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को स्वयमेव कूटग्राह के पद पर नियुक्त कर दिया। तदनन्तर अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय सैनिक की भांति तैयार हो कर कवच पहन कर, एवं शस्त्र अस्त्रों को ग्रहण कर अपने घर से निकलता है, निकल कर गोमंडप में जाता है, वहाँ पर अनेक गो आदि नागरिक-पशुओं के अंगोपांगों को काटकर अपने घर में आ जाता है, आकर उन गो आदि पशुओं के शूल-पक्व मांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन करता हुआ जीवन व्यतीत करता है। तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मों वाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, एवंविध विद्या-पापरूप विद्या के जानने वाला तथा एवंविध आचरणों वाला नाना प्रकार के पाप कर्मों का उपार्जन कर पाँच सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर चिन्ताओं और दुःखों से पीड़ित होता हुआ कालमास में-मरणावसर में काल कर के उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले दूसरे नरक में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। टीका-अधर्मी या धर्मात्मा, पापी अथवा पुण्यवान् जीव के लक्षण गर्भ से ही प्रतीत होने लगते हैं। गोत्रास का जीव गर्भ में आते ही अपनी पापमयी प्रवृत्ति का परिचय देने लग पड़ा था। उसकी माता के हृदय में जो हिंसाजनक पापमय संकल्प उत्पन्न हुए उस का एकमात्र कारण गोत्रास का पाप-प्रधान प्रवृत्ति करने वाला जीव ही था। युवावस्था को प्राप्त होकर पितृ-पद को संभाल लेने के बाद उसने अपनी पापमयी प्रवृत्ति का यथेष्टरूप से आरम्भ कर दिया। प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय एक सैनिक की भांति कवचादि पहन और अस्त्रशस्त्रादि से लैस होकर हस्तिनापुर के गोमण्डप में जाना और वहां नागरिक पशुओं के अंगोपांगादि को काटकर लाना, एवं तद्गत मांस को शूलादि में पिरोकर पकाना और उस का मदिरादि के साथ सेवन करना यह सब कुछ उस की जघन्यतम हिंसक प्रवृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए सूत्रकार ने उसे अधार्मिक, अधर्मानुरागी यावत् साधुजनविद्वेषी कहा है, तथा 286 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [ प्रथम श्रुतस्कंध