________________ इस उल्लेख में, फलप्रदाता कर्म ही हैं कोई अन्य व्यक्ति नहीं यह भी भली-भांति सूचित किया गया है। उज्झितक कुमार की इस दशा को देखकर श्री गौतम स्वामी के हृदय में क्या विचार उत्पन्न हुआ और उस के विषय में उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से क्या कहा, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से भगवओ गोतमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिते 5 समुप्पज्जित्था, अहोणं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति, त्ति कट्ट वाणियग्गामे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्तं समुयाणं गेण्हति 2 त्ता वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं जाव पडिदंसेति, समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे वाणियग्गामे तहेव जाव वेएति।से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसी? जाव पच्चणुभवमाणे विहरति ? ____ छाया-ततस्तस्य भगवतो गौतमस्य तं पुरुषं दृष्ट्वाऽयमाध्यात्मिकः५ समुदपद्यत, अहो अयं पुरुषः यावद् निरयप्रतिरूपां वेदनां वेदयति, इति कृत्वा वाणिजग्रामे नगरे उच्चनीचमध्यमकुले अटन् यथापर्याप्तं समुदानं (भैक्ष्यम्) गृण्हाति गृहीत्वा वाणिजग्रामस्य नगरस्य मध्यमध्येन यावत् प्रतिदर्शयति, श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवं खलु अहं भदन्त ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् वाणिजग्रामे तथैव यावत् वेदयति। स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति ? पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-उस। भगवओ गोतमस्स-भगवान् गौतम को। तं पुरिसं-उस पुरुष को। पासित्ता-देख कर / इमे-यह / अज्झत्थिते-आध्यात्मिक-संकल्प। समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ। अहो णं-अहह-खेद है कि। इमे पुरिसे-यह पुरुष। जाव-यावत्। निरयपडिरूवियं-नरक के सदृश। वेयणं-वेदना का। वेदेति-अनुभव कर रहा है। त्ति कट्ट-ऐसा विचार कर। वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नामक। णगरे-नगर में। उच्चनीयमज्झिमकुले-ऊंचे-नीचे-धनिक-निर्धन तथा मध्य कोटि के गृहों में। अडमाणे-भ्रमण करते हुए। अहापजत्तं-आवश्यकतानुसार। समुयाणं-सामुदानिक-भिक्षा, गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा / गेण्हति रत्ता-ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के। वाणियग्गामं नगरं-वाणिज-ग्राम नगर के। मझमझेणं-मध्य में से। जाव-यावत्। पडिदंसेइ-भगवान को भिक्षा दिखाते हैं तथा। समणं भगवं महावीरं-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को। वंदति णमंसति-वन्दना और नमस्कार करते हैं, वन्दना 258 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध