________________ व्यक्तम् , नवरं जघनं पूर्वः कटिभागः, लावण्यमाकारस्य स्पृहणीयता, विलासः स्त्रीणां चेष्टाविशेषः"। अर्थात् उस के स्तन, 'जघन (कमर का अग्रभाग), बदन (मुख), कर (हाथ), चरण और नयन प्रभृति अंगप्रत्यंग बहुत सुन्दर थे और रूप वर्ण लावण्य (आकृति की सुन्दरता) हास तथा विलास (स्त्रियों की विशेष चेष्टा) बहुत मनोहर थे। "-ऊसियधया-उच्छ्रितध्वजा-" अर्थात् कामध्वजा गणिका के विशाल भवन पर ध्वजा (छोटा ध्वज) फहराया करती थी। ध्वज किसी भी राष्ट्र की पुण्यमयी संस्कृति का एवं राष्ट्र के तथागत पुरुषों के अमर इतिहास का पावन प्रतीक हुआ करता है। ध्वज को किसी भी स्थान पर लगाने का अर्थ है-अपनी संस्कृति एवं अपने अतीत राष्ट्रीय पूर्वजों के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना तथा अपने राष्ट्र के गौरवानुभव का प्रदर्शन करना। ध्वज का सम्मान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी का सम्मान होता है और उस का अपमान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी के अपमान का संसूचक बनता है। इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए राष्ट्रीय भावना के धनी लोग ध्वज को अपने मकानों पर लहरा कर अपने राष्ट्र के अतीत गौरव का प्रदर्शन करते हैं। सारांश यह है कि कामध्वजा गणिका का मानस राष्ट्रीय-भावना से समलंकृत था, वह गणिका होते हुए भी अपने राष्ट्र की संस्कृति एवं उसके इतिहास के प्रति महान् सम्मान लिए हुए थी, और साथ में वह उस का प्रदर्शन भी कर रही थी। "सहस्सलंभा-सहस्रलाभा-" अर्थात् वह कामध्वजा गणिका अपनी नृत्य, गीत आदि किसी भी कला के प्रदर्शन में हज़ार मुद्रा ग्रहण किया करती थी, अथवा सहवास के इच्छुक को एक सहस्र मुद्रा भेंट करनी होती थी अर्थात् उस के शरीर आदि का आतिथ्य उसे ही प्राप्त होता था जो हज़ार मुद्रा अर्पण करे। 1. कामी पुरुष स्त्री के स्तन, मुखादि अंगों को किन-किन से उपमित करते हैं, अर्थात् इन को किसकिस की उपमा देते हैं तथा ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में उन का वास्तविक स्वरूप क्या है, उस के लिए भर्तृहरि का निम्नोक्त श्लोक अवश्य अवलोकनीय हैस्तनौ मांस-ग्रन्थी, कनककलशावित्युपमितौ। मुखं श्लेष्मागारं, तदपि च शशांकेन तुलितम्॥ स्रवन्मूत्र-क्लिन्नं, करिवरकरस्पर्द्धि जघनम्। अहो ! निन्द्यं रूपं, कविजनविशेषैः गुरुकृतम्॥१॥[वैराग्यशतक] अर्थात्-यह कितना आश्चर्य है कि स्त्री के नितान्त गर्हित स्वरूप को कविजनों ने अत्यन्त सुन्दर पदार्थों से उपमित करके कितना गौरवान्वित कर दिया है जैसे कि-उसके वक्षस्थल पर लटकने वाली मांस की ग्रन्थियोंस्तनों को दो स्वर्ण घटों के समान बतलाया, श्लेष्मा बलगम के आगार रूप मुख को चन्द्रमा से उपमित किया और सदा मूत्र के परिस्राव से भीगे रहने वाले जघनों उरुओं को श्रेष्ठ हस्ती की सूंड से स्पर्धा करने वाले कम है। तात्पर्य यह है कि कवि जनों का यह अविचारित पक्षपात है जो कि वास्तविकता से दूर है। 240 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध