________________ सूचना देनी सूत्रकार को अभीष्ट है। यद्यपि भगवान् का धर्मोपदेश तो अन्यान्य आगमों में भी वर्णित हुआ है, परन्तु इस में विशेष रूप से वर्णित होने के कारण सूत्रों में उल्लिखित उक्त पदों से औपपातिक सूत्रगत वर्णन की ओर ही संकेत किया गया है। इसी शैली को प्रायः सर्वत्र अपनाया गया है। "-इंदभूती जाव लेसे-" पाठान्तर गत "-जाव-यावत्-" पद से "-इन्दभूती अणगारे गोयमसगोत्ते-" से ले कर "-'संखित्तविउलतेयलेसे"-पर्यन्त समग्र पाठ का ग्रहण समझना। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ २अन्तेवासी-प्रधान शिष्य गौतम-गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार षष्ठभक्त [बेले-बेले पारना करना] की तपश्चर्या रूप तप के अनुष्ठान से आत्मशुद्धि में प्रवृत्त हुए भगवान् की पर्युपासना में लगे हुए थे। समस्त वर्णन व्याख्या-प्रज्ञप्ति में लिखा गया है। व्याख्या-प्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र का वह पाठ इस प्रकार है छटुंछटेणं अणिक्खित्ते णं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे छट्ठ-क्खमणपारणगंसि'- इत्यादि। "-पढमाए जाव" यहां के "-जाव-यावत्-" पद से "-पढ़माए पोरसीए सज्झायं करेति, बीयाए पोरसीए झाणं झियाति, तइयाए पोरसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, भायणवत्थाणि पडिलेहेति, भायणाणि पमज्जति, भायणाणि उग्गाहेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 ता समणं 3 वंदति 2 त्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे णगरे उच्चणीयमज्झिमकुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।तए णं भगवं गोयमे समणेणं 3 अब्भणुण्णाते समाणे समणस्स 3 अंतियातो पडिनिक्खमति, अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे" इस पाठ का स्मरण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। इस समग्र पाठ का भावार्थ इस प्रकार है तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले भगवान् गौतम स्वामी निरन्तर षष्ठतप-बेले-बेले पारना द्वारा आत्म-शुद्धि में प्रवृत्त होते हुए पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यानारूढ़ होते, तीसरे प्रहर में कायिक और मानसिक चापल्य से रहित होकर मुखवस्त्रिका की तथा भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं। तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और 1. इस समग्र पाठ के लिए देखो भगवती सूत्र, श० 1, उ० 1, सू० 7 / 2. अन्ते समीपे वसतीत्येवं शीलोऽन्तेवासी-शिष्यः, अन्तेवासी सम्यग् आज्ञाविधायी, इतिभावः। 246 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध